Book Title: Guru Vani Part 01 Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain TrustPage 87
________________ अक्षुद्रता गुरुवाणी-१ इतने वर्षों का हो गया, किन्तु उसका आयुष्य तो घटता गया। इच्छाएं आकाश के समान होती हैं .... उत्तराध्यन सूत्र में इन्द्र और नमिराजा का संवाद आता है। उसमें इन्द्र महाराज प्रश्न करते हैं और संयम के मार्ग पर कदम भरने वाले नमिराजा उतना ही सुन्दर उत्तर देते हैं। इन्द्र महाराज कहते हैं- आप धन भंडार को पूर्ण रूप से भरकर जाइए। नमिराजा उत्तर देते हैं- हे इन्द्र ! मनुष्य की तृष्णा निरन्तर बढ़ती जाती है वह कभी भी तृप्त नहीं होती। सुभूम चक्रवर्ती हो गये। इस पृथ्वी पर अधिक से अधिक अनेक बुद्धिशाली चक्रवर्ती हो गये हैं। सुभूम की छः खण्ड विजय के बाद भी तृष्णा बुझी नहीं । वह अन्य छः खण्ड भी जीतने की तैयारी करता है। विमान तैयार करवाता है। १६ हजार देवता उस विमान को उठाकर लवण समुद्र के ऊपर से जा रहे हैं । वहाँ एक देवता को यह विचार आता है कि इतने सब देवगण इस विमान को उठाकर ले जा रहे हैं, तो मैं यदि अकेला हाथ नहीं लगाउँगा तो क्या बाधा उत्पन्न होगी? ऐसा विचार कर वह अपना हाथ खेंच लेता है। उसी समय एक साथ ही १६ हजार देवों को भी इसी प्रकार का विचार आता है और वे सब एक साथ हाथ खींच लेते हैं। फल यह होता है कि वह विमान निराधार होकर समुद्र में गिर पड़ता है। तृष्णा की आग में चक्रवर्ती मरकर सातवीं नरक में जाता है। भगवान् ने श्रावकों के व्रत में बतलाया है न? परिग्रह परिमाण व्रत अर्थात् सम्पत्ति की मर्यादा। यदि यह नहीं बन सकता है तो तुम अपनी इच्छा का परिमाण करो। इच्छा आकाश के समान अनन्त होती है। इस इच्छा को मर्यादा/सीमा में लाने के लिए ही भगवान् ने इच्छा परिमाण व्रत बतलाया है। आज का मनुष्य इतनी लोभ दशा में जीवन जी रहा है, उसकी तो बात ही न की जाए। लाभ और लोभ के बीच में केवल एक मात्रा का अन्तर है। एक मात्रा अधिक होने से लोभ सर्वदा आगे रहता है और ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता जाता है त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है।Page Navigation
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