Book Title: Guru Vani Part 01 Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain TrustPage 85
________________ गुरुवाणी-१ अक्षुद्रता अपार सम्पत्ति है? उसने विचार किया- राजा को यह जानकारी प्राप्त हो जाए कि मेरे पास ऐसी अखूट सम्पत्ति है तो बहुत अच्छा होगा। ऐसा विचार कर उसने अपने समस्त कुटुम्ब को इकट्ठा किया और उनके समक्ष कहा- यदि हम राजा को भोजन के लिए आमंत्रण दें तो कैसा रहेगा? छोटी बहू ने अस्वीकार किया। उसका कथन था कि सम्पत्ति का प्रदर्शन उपयुक्त नहीं है। फिर भी सेठ ने उसकी बात नहीं मानी और राजा को भोजन के लिए आमंत्रित किया। भोजनोपरान्त अपनी समग्र सम्पत्ति का प्रदर्शन किया। राजा तो सम्पत्ति से भरे हुए एक-एक कमरे को देखकर आश्चर्य चकित रह गया। अरे, इतना धन का भंडार तो मेरे पास भी नहीं है। राजा अपने महल में गया किन्तु मन की अशांति सुलगती ही रही। राजा ने मन्त्री के समक्ष सारी स्थिति का वर्णन किया। इस जगत् में प्रकृति का एक नियम है- मनुष्य दूसरे की सम्पत्ति को जब तक नहीं देखता है तब तक अपने पास रही हुई सम्पत्ति में ही सन्तुष्ट होता है किन्तु जब उसकी दृष्टि के सामने दूसरों की सम्पत्ति आती है तो उसके जीवन में ईर्ष्या की आग भभक उठती है। पानी के भीतर रहे हुए जहाज को वायु अपनी इच्छानुसार घसीटकर ले जाती है उसी प्रकार मनुष्य को वैभव रूपी वायु अपनी ओर खींचकर ले जाती है। मन्त्री ने कहा- यह धन उससे छीन लें, किन्तु अचानक उसके यहाँ छापा मारेंगे तो लोक में हम निन्दा के पात्र बन जाएंगे। इसीलिए मन्त्री एक युक्ति सुझाता हुआ राजा को कहता है- सेठ को अपने यहाँ निमंत्रित कीजिए और उसके आने पर उससे एक प्रश्न पूछिए, यदि वह उत्तर दे दे तो बहुत अच्छा अन्यथा उसे यह कहा जाए- भाई, यह सम्पत्ति तो बुद्धिबल से ही सुरक्षित रहती है, बुद्धि के बिना सम्पत्ति संभाली नहीं जा सकती। इसीलिए सुरक्षा की दृष्टि से तुम्हारी सम्पत्ति राज्य के कोषागार में भेज दो। इस मन्त्रणा के अनुसार सेठ को बुलाया जाता है और उसके सामने एक प्रश्न रखा जाता है। सेठ तो इस बात को सुनकर भौचक्का सा रह जाता है। मन्त्री प्रश्नPage Navigation
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