Book Title: Guru Vani Part 01
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 100
________________ ७८ मूल तत्त्व गुरुवाणी-१ आते हैं । वसु और पर्वत के किए हुए अयोग्य कार्य पर आचार्य उपालम्भ भी देते हैं। उनके इस व्यवहार से आचार्य जान जाते हैं कि मेरा पुत्र पर्वत और राजकुमार वसु नरकगामी हैं। स्वयं के पुत्र को नरकगामी जानकर आचार्य को संसार से वैराग्य हो जाता है और स्वयं संसार छोड़ देते हैं। बहुत समय के पश्चात् वसु राजा बनता है, नारद स्वस्थान पर चला जाता है और पर्वत अध्यापक के रूप में कार्य करता है। पर्वत के पास विद्यार्थी पढ़ने के लिए आते हैं। एक दिन नारद भी घूमते-घूमते वहाँ आ जाते हैं। उस समय पर्वत विद्यार्थियों को पढ़ा रहा था। वह अजा शब्द की व्याख्या करते हुए अजा का अर्थ बकरा करता है। प्रसंग आता है कि यज्ञ में अज का होम करना चाहिए। अज के दो अर्थ होते हैं । गौण/ सामान्य अर्थ होता है, नहीं उगने वाला तीन वर्ष पुराना धान्य। अज का दूसरा अर्थ होता है बकरा। पूर्व आचार्य क्षीरकदम्बक ने अज का अर्थ तीन वर्ष पुराना धान्य ही किया था। यहाँ पर्वत ने बकरा अर्थ किया। नारद और पर्वत के बीच वाद-विवाद हुआ। पर्वत कहता है- गुरुजी ने बकरा ही अर्थ किया था, जबकि नारद कहता है- गुरुजी ने पुराना धान्य ही अर्थ किया था। इन दोनों का वाद-विवाद शर्त के रूप में परिणत हो गया। उन दोनों ने निर्णय किया कि साक्षी के रूप में वसु राजा रहेंगे। हम दोनों उनके पास जाएँ और जो शर्त में हार जाए वह अपनी जिह्वा को काट ले। यह शर्त की बात पर्वत की माता ने सुनी, उसने पर्वत को एकान्त में बुलाकर कहा- हे पुत्र! तूने बहुत जल्दबाजी की। तेरे पिताजी ने अज अर्थात् पुराना धान्य ही किया था। यह बात घर का काम करते हुए मैंने सुनी थी। अब क्या होगा? पुत्र - मोह के कारण पर्वत की माता गुप्त रूप से वसु राजा के पास जाती है और उनके समक्ष दोनों के वाद-विवाद की घटना बतलाती है। साथ ही खोटी साक्षी देने के लिए गुरुमाता के रूप में दबाव भी डालती है। वसु राजा की एक समय में सत्यवादी के रूप से प्रसिद्धि थी और उसका सिंहासन स्फटिक शिला पर निर्मित हुआ था। दर्शकों को ऐसा ही लगता

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