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से जीते जीतं सर्वं
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गुरुवाणी - १ आचार्यश्री के शिष्यों को वहोराते थे । वे आचार्य स्वयं महाज्ञानी थे फिसलन वाले स्थान पर पग आ जाए तो मनुष्य फिसलेगा ही। इसी प्रकार इन्द्रियाँ फिसलाने वाली हैं। कुछ समय तक तो आचार्य महाराज निर्लेप रहे । रसनेन्द्रिय ने अपना प्रभाव जमाया, फलत: आचार्य महाराज अधिक समय मथुरा में निवास करने लगे । भद्रिक भक्तगण श्रद्धा से भिन्न-भिन्न स्वादिष्ट पक्वानों के द्वारा आचार्य महाराज की भक्ति करने लगे । आचार्य महाराज की वृद्धावस्था आ गई। उनको स्वादिष्ट भोजन रुचिकर लगने लगा। अर्थात् आचार्य महाराज आसक्ति से भोजन करने लगे। वहीं यमराज की घंटी बजी, आचार्य श्री का स्वर्गवास हो गया । मथुरा नगरी के बाहर एक गंदा नाला है। साधुगण वहाँ प्रतिदिन स्थंडिल / निपटने के लिए जाते थे । साधुगण वहाँ जाते हैं तब उन्हें एक विकराल आकृति दिखाई देती है। यह क्रम आठ-दस दिन तक चला। साधुगण भयभीत हो गये । साधुमण्डली ने विचार कर निर्णय लिया कि आज सब लोग मिलकर एक साथ जाएंगे। पूरी मण्डली उस स्थान पर जाती है । वह मण्डली देखती है कि वह विकराल आकृति जिसके मुख में से जीभ बाहर निकल-निकलकर चटकारा मार रही है । साधुगण हिम्मत करके उससे पूछते हैं- तुम कौन हो और हम सबको क्यों डरा रहे हो? उत्तर में विकराल आकृति बोली- मैं तुम्हारा गुरु आर्य मंगु हूँ । तुम लोगों को भयभीत करने के लिए मैं यहाँ नहीं आता, किन्तु उपदेश देने के लिए आता हूँ। रसनेन्द्रिय की लालसा छोड़ दो। इसी लालसा से इस नाली पर मैं व्यंतर देव के रूप में उत्पन्न हुआ हूँ । भविष्य में तुम्हारी भी यह दशा न हो इसीलिए तुम सबको चेतावनी देने के लिए मैं यहाँ आया हूँ । तुम सब लोग यहाँ से शीघ्र ही विहार कर दो और भविष्य में भी जिह्वा के स्वाद में आसक्ति मत रखना ।
आर्य मंगु जैसे ज्ञानी युगप्रधानों की भी ऐसी दयनीय दशा हो जाती है तो हमारी दशा कैसी होगी?