Book Title: Guru Vani Part 01
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 103
________________ गुरुवाणी-१ सम्पूर्ण शरीर - धर्म योग्य है इसीलिए महापुरुष कहते हैं- वृद्धावस्था में तुम्हारे से धर्म नहीं हो सकेगा। जो मनुष्य कान से बहरा हो वह धर्म तत्त्व कैसे सुन सकता है? आँखों से दिखता न हो तो मनुष्य भगवान् के दर्शन और पुस्तक-वांचन कैसे कर सकता है? भोग स्वयं ही एक प्रकार का रोग है। आप रोग मिटाने की दवा करोगे अथवा रोग बढ़ाने की? अनाथी मुनि .... श्रेणिक महाराज घूमने के लिए निकलते हैं। वैसे तो भगवान् की देशना सुनने के लिए भी जाते थे। भगवान् की सेवा में कम से कम एक करोड़ देवता उपस्थित रहते थे। भगवान् का ऐसा अतिशय होता है कि कितने ही अधिक देवता क्यों न हो वे उस समवशरण की सीमा में समाविष्ट हो जाते थे। मार्ग में एक युवा पुरुष साधु वेश को अंगीकार कर ध्यानस्थ खड़ा है। अचानक महाराज श्रेणिक की दृष्टि उस पर गई। अपने वाहन से उतरकर, वहाँ जाकर श्रेणिक महाराज ने उनको नमस्कार किया। यह उस काल की विशिष्टता कहें या कुछ और कहें, किन्तु साधु महाराज को देखते ही राजाधिराज भी उनको नमन करते। साधु को देखकर वह झुक जाता है। श्रेणिक महाराज ने उनसे प्रश्न किया- भगवन् ! आपने इस छोटी सी अवस्था में यह मार्ग क्यों स्वीकार किया? संसारसुख भोगने के बाद निकलना चाहिए था। आपका नाम क्या है? साधु महाराज उत्तर देते हैं- हे राजन्, मेरा नाम अनाथी मुनि है। राजा कहता है- आप अनाथ कहाँ हैं । सम्पूर्ण देश का राजाधिराज मैं आपके चरणों में बैठा हुआ हूँ तब आप अनाथ कैसे हुए? मुनि कहते हैं- हे राजन्! मै अकेला ही नहीं, आप स्वयं भी अनाथ हैं । यह सुनकर राजा कहता हैहे महाराज! आपके कथन के रहस्य को मैं नहीं समझ पाया, स्पष्ट कहिए। मुनि कहते हैं- हे राजन् ! सुनो, मै एक देश का राजकुमार था। युवावस्था में मेरे शरीर में एक भयंकर व्याधि उत्पन्न हो गई। उस व्याधि को दूर

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