Book Title: Guru Vani Part 01
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 83
________________ अक्षुद्रता श्रावण सुदि १ पित्त के समान . वास्तव में इस जीवन में अर्जन करने योग्य कोई वस्तु हो तो वह धर्म ही है। धर्मरूपी जवाहरात प्राप्त करना महादुर्लभ है। आज जीवन में जो छिछोरापन है उसके कारण मनुष्य अपने में रहे हुए गुणों का अवमूल्यांकन करता है। जब मनुष्य के शरीर में पित्त की बढ़ोतरी हो जाती है और वह पित्त जब तक वमन के द्वारा बाहर नहीं निकलता है तब तक उसको चैन अर्थात् शांति नहीं मिलती है। जब तक जीवन में यह छिछोरापन समाया हुआ है, वह मनुष्य स्वकृत सत्कार्यों का गुणगान नहीं करेगा तब तक उसे शान्ति नहीं मिलेगी । प्रथम अक्षुद्र गुण-वर्णन . विचारों में भी बचपना, स्वभाव से भी लड़कपन, धर्मकार्य में भी छिछोरापन, जिसमें ये अवगुण रहे हुए हो वह मनुष्य धर्म के लायक नहीं होता । उसके कथन एवं व्यवहार में भी छिछोरापन रहता है। सम्पूर्ण विश्व अधिकांशतः छिछला ही है। जीवन में गंभीरता लाओ । समुद्र गंभीर होता है । वह समस्त नदियों का पानी अपने में समा लेता है। जबकि थोड़े से पानी से भरे हुए घड़े छिछले होते हैं और वे छलकते रहते हैं वे पानी का संग्रह नहीं कर सकते । वस्तुतः आज अधिकाशंतः लोग छिछले हो गये हैं, इसीलिए कोई भी सत्कार्य करेंगे तो उनकी हार्दिक अभिलाषा रहेगी कि मैं उस कार्य की दूसरों से प्रशंसा प्राप्त करूं। जबकि गंभीर प्रकृति का मनुष्य किसी को दान देता है अथवा कोई उत्तम कार्य करता है तो उसका दूसरा हाथ भी नहीं जान पाता । एक पुत्र को उसके पिता ने कहा- हे वत्स, तुम धर्म कार्य में इच्छानुसार

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