Book Title: Guru Vani Part 01
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 40
________________ १८ ज्ञान का अञ्जन गुरुवाणी-१ खून खराबा करता था और सबको लूट लेता था। वह दृढ़प्रहारी किसी एक नगर में घूम रहा था। वहाँ एक गली में गरीब ब्राह्मण का घर था। उस ब्राह्मण के घर में उस रोज खीर बन रही थी। लड़के आँख बिछाकर राह देख रहे थे। उसी समय दृढ़प्रहारी उधर से निकलता है और खीर को देखता है। वह खीर झपटने के लिए दौड़ता है। ब्राह्मण उसके दुष्ट भावों को भांप जाता है, क्योंकि स्वयं के लड़के भूख से तिलमिला रहे थे इसलिए वह दृढ़प्रहारी के सामने खड़ा हो जाता है। दृढ़प्रहारी ऐसी सामान्य वस्तु के लिए भी तलवार खींच लेता है, क्योंकि भूख और क्रोध से उसका दिमाग आपे के बाहर चला गया था। उसी समय दृढ़प्रहारी के बीच में गाय आ जाती है। गुस्से से बेकाबू होकर वह गाय पर तलवार चलाकर उसे खत्म कर देता है। उसी समय उसके समक्ष ब्राह्मणी खड़ी हो जाती है। ब्राह्मणी पर भी तलवार चला कर उसे खत्म कर देता है। उस समय ब्राह्मणी गर्भवती थी। ब्राह्मणी और गर्भ दोनों ही तड़पकर मर जाते हैं। दृढ़प्रहारी के इस भयंकर दुष्कृत्य को देखकर उसका सामना करने के लिए ब्राह्मण सामने आता है। वह ब्राह्मण को भी मार गिराता है। शास्त्रों में आने वाली चार महाहत्याएं - ब्रह्महत्या, गौ हत्या, गर्भ हत्या, और स्त्री हत्या यह चार हत्या करने के बाद जहाँ खीर का बर्तन रखा हुआ है वहाँ पहुँचता है। उस समय अपने समक्ष क्रूर हत्याएं देखकर सारे बालक जोरजोर से रोने लगते हैं। इस दृश्य को देखकर दृढ़प्रहारी के हृदय में गहरा आघात लगता है। उसके समक्ष खून से लथपथ चार शव पड़े हुए हैं। इस बीभत्स दृश्य को देखकर उसका हृदय द्रवित हो उठता है। वह वहाँ से भागता है। उसके इस नीच कृत्य को देखकर लोग उसकी भर्त्सना करते हैं। दृढ़प्रहारी के जीवन में अशांति ही अशांति व्याप्त हो जाती है। घूमते हुए उसे एक साधु महात्मा मिलते हैं। साधु महात्मा कायोत्सर्ग ध्यान में लीन होते हैं, उनकी शांत मुद्रा देखकर दृढ़प्रहारी कहता है- महाराज! मुझे शांति प्रदान करिए। मैं महापापी हूँ अतः मुझे बचाइए । मुनिराज ज्ञान

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