Book Title: Guru Vani Part 01
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 30
________________ धर्मरहित चक्रवर्ती पद मुझे नहीं चाहिए आषाढ़ सुदि पूर्णिमा कल्याणकारी धर्म.... ___ धर्म क्या है? इसको जीवन में समझने की आवश्यकता है। जीवों की तीन भूमिकाएं होती हैं- बाल्यावस्था, मध्यमावस्था, और प्राज्ञावस्था। बाल्यावस्था में बालकों को खिलौने आदि प्रिय होते हैं। मध्यमावस्था में उसको खिलौनो में कोई रुचि नहीं होती, वह क्रियाकाण्ड आदि जो धर्म स्वरूप माने जाते हैं उसमें रुचि लेता है। मनुष्य की जिस प्रकार की योग्यता होती है उसके साथ वैसी ही वार्ता करनी चाहिए। धर्म एक विशाल वस्तु है जिसमें सब वस्तुओं का समावेश हो जाता है। धर्म की प्राप्ति अर्थात् सद्गुणों की प्राप्ति है। धर्म का स्वरूप दिव्य स्वरूपमय होता है। धर्म का दिव्य स्वरूप जब जीवन में आता है तब जीवन मंगलमय बन जाता है। जब धर्म की विलक्षणता का ध्यान आता है तब मनुष्य को जानकारी होती है। इस धर्म के बिना एक क्षण भी जीवन नहीं जी सकते। जीवन में मान-सम्मान, प्रतिष्ठा सब प्राप्त हो जाने पर वह समझता है कि मुझे सर्वस्व मिल गया है। किन्तु यह सब कृत्रिम/बनावटी होता है इन वस्तुओं के चले जाने पर आदमी दिङ्मूढ सा खड़ा का खड़ा रह जाता है, उसको खबर भी नहीं होती। इन नश्वर/कृत्रिम वस्तुओं के समक्ष धर्म सुदृढ़ होता है, उसमें बनावटीपन नहीं होता है। वैशाख के महीने में मध्याह्न की गर्मी में जंगल में कहीं पर भी छायादार वृक्ष मिल जाता है तो मन को कितनी शान्ति मिलती है, उसी प्रकार धर्म मिलने से उसको सर्वत्र शान्ति मिलती है। आचरण का ज्ञान आवश्यक है .... इस जन्म में ही धर्म के आचरण की सुविधा प्राप्त है। अन्य किसी योनि में क्या धर्माचरण का अवसर मिल सकता है? महाराजा

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