Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01 Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 9
________________ [8] कथाओं का उल्लेख हुआ है, वे सभी कथाएं जीव का आध्यात्मिक समुत्कर्ष करने वाली हैं। आत्मभाव अनात्मभाव का स्वरूप, साधक के लिए आहार का उद्देश्य, संयमी जीवन की कठोर साधना, शुभ परिणाम, अनासक्ति, श्रद्धा का महत्त्व आदि विषयों पर बड़ा ही मार्मिक प्रकाश कथाओं के माध्यम से इस आगम में किया गया है। एक-एक अध्ययन की कथा एवं उसमें आई अवान्तर कथाओं का सावधानी से पारायण किया जाय तो जीवन उत्थान में बहुत ही सहयोगी बन सकती हैं। संक्षिप्त में इसकी मुख्य उन्नीस कथाएं यहाँ दी जा रही है। प्रथम अध्ययन :- यह अध्ययन मगध अधिपति महाराज श्रेणिक के सुपुत्र मेघकुमार . का है। मेघकुमार ने बड़े ही उत्कृष्ट भावों से संयम ग्रहण किया। दीक्षा की प्रथम रात्रि को ज्येष्ठानुक्रम के अनुसार उनका संस्तारक (बिछौना) सभी मुनियों के अन्त में लगा, जिससे रात्रि में संतों के आने-जाने से उनके पैरों की टक्कर धूली आदि से मेघमुनि को रात्रि भर नींद नहीं आई, संयम में घोर कष्टों का अनुभव होने लगा। अतएव उन्होंने प्रातः होते ही भगवान् से पूछ कर घर लौटने का निश्चय किया। प्रातःकाल जब वे प्रभु के समक्ष उपस्थित हुए. तो प्रभु ने उनके मनोगत भावों को प्रकट किया और उनके पूर्व हाथी के भवों में सहन किए गए घोरातिघोर कष्टों का विस्तृत वर्णन किया। कहा-हे मेघमुनि! इतने घोर कष्टों को तो सहन कर लिए और रात्रि के मामूली कष्ट से घबरा कर घर जाने का विचार कैसे कर लिया? मेघमुनि का इस पर चिंतन चला जिससे उन्हें जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिसके बल से उन्होंने प्रत्यक्ष भगवान् द्वारा फरमाये गए पूर्वभवों को देखा। फलस्वरूप अपनी स्खलना के लिए पश्चाताप करने लगे बोले-भगवन् आज से दो नेत्रों को छोड़कर समग्र शरीर श्रमण निर्ग्रन्थों की सेवा में समर्पित है। ____ इस कथानक से मेघमुनि के संयम की पहली रात्रि अनात्मभाव का बोध कराती है। जबकि भगवान् के उपदेश के बाद संयम में स्थिर होना आत्मभाव का संकेत करता है। जीव अनात्मभाव में होता है, तब उसे सामान्य कष्ट भी उद्धेलित कर डालते हैं, वही जीव जब आत्मभाव में स्थित होता है तो बड़े से बड़ा कष्ट भी निर्जरा का हेतु नजर आने लगता है। दूसरा अध्ययन :- इस अध्ययन में बतलाया गया है कि संयमी साधक को संयम के साधनभूत शरीर को टिकाये रखने के लिए इसे आहार देना पड़ता है। पर साधक को आहार ग्रहण में न तो आसक्ति रखनी चाहिए न ही शरीर की पुष्टता का लक्ष्य रखना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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