Book Title: Gita Darshan Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 269
________________ इंद्रियजय और श्रद्धा क्रोध का पता है कि भीतर कौंधता है, लेकिन क्रोध क्या है? यह | | और धीरे-धीरे कोई रोज बहाता रहे क्रोध को, तो भी शक्ति क्षीण अंतःआकाश में कौंध गई बिजली क्या है, जानते हैं? नहीं जानते। | होती है। क्योंकि क्रोध हमारी ही शक्ति है, जिससे हम परिचित नहीं। और अगर लड़ने गए, तो हारेंगे क्रोध से, जीतेंगे नहीं। कैसे क्रोध वही शक्ति है, जो क्षमा बन जाती है। काम वही शक्ति है, जीतेंगे? जिसे जानते नहीं, उसे जीतने का उपाय नहीं है। | जो ब्रह्मचर्य बनती है। लोभ वही शक्ति है, जो दान बनती है। घृणा लेकिन क्रोध से हम लड़ते हैं। लड़कर हम क्या कर सकते हैं? | वही शक्ति है, जो प्रेम में रूपांतरित होती है। तो जो रोज घृणा कर हम इतना ही कर सकते हैं कि जब क्रोध आए, तो हम दबाएं। दबेगा | लेता है, माना कि कभी इतनी घृणा इकट्ठी नहीं कर पाता कि हत्या कहां? और भीतर! दमन सब भीतर ही चला जाता है। उठेगा, हम कर दे, कि छुरा भोंक दे, लेकिन जो रोज घृणा करता है, वह प्रेम दबा देंगे; और अंतःपुरों में प्रविष्ट हो जाएगा; और गहरे प्रकोष्ठों करने के लायक शक्ति उसके पास बचती नहीं है। क्योंकि वही में दब जाएगा। फिर वहां प्रतीक्षा करेगा। रोज-रोज दबाएंगे, इकट्ठा शक्ति प्रेम बनती है। जो रोज क्रोध कर लेता है, क्षमा करने योग्य होता जाएगा। उसके पास ऊर्जा, एनर्जी नहीं होती। बह जाती है सब। लीकेज से मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो लोग हत्याएं कर देते हैं, आमतौर | भी बह जाती है। विस्फोट से इकट्ठी बहती है, लीकेज से धीरे-धीरे से वे लोग होते हैं, जो रोज क्रोध नहीं करते हैं। जो लोग बहती है; लेकिन आदमी रिक्त हो जाता है। छोटी-छोटी बात में क्रोध कर लेते हैं, उनके बाबत एक रोज क्रोध, रोज घृणा, रोज लोभ करने वाला आदमी ठीक वैसा भविष्यवाणी की जा सकती है कि हत्यारे वे नहीं हो सकते हैं। | है, जैसे किसी आदमी ने कुएं में बाल्टी डाली, जिसमें हजार छेद रोज-रोज निकल जाता है; इतना इकट्ठा नहीं हो पाता है कि हत्या | हैं। पानी तो भरता हुआ दिखाई पड़ता है; जब तक बाल्टी पानी में कर पाएं। हत्या करने के लिए बहुत क्रोध इकट्ठा होना चाहिए। | डूबी रहे, तब तक लगता है, भरा। पानी के ऊपर उठी बाल्टी कि विस्फोट होता है फिर, एक्सप्लोजन होता है। रोज-रोज निकल लगा कि निकला। कुएं में शोरगुल बहुत होता है; आवाज बहुत जाता है, तो लीकेज, विस्फोट होने का मौका नहीं आ पाता। होती है; वर्षा मच जाती है; हजार-हजार छेद से बाल्टी के पानी रोज-रोज भाप निकल जाती है। टपकने लगता है; लेकिन जब तक हाथ में आती है बाल्टी, तब इसलिए भले हैं वे लोग, जो रोज छोटा-मोटा क्रोध करके निपट तक रिक्त हो गई होती है। लेते हैं। भले इस अर्थों में हैं कि उनसे बहुत बड़े खतरे की संभावना जीवन में शोरगुल बहुत है हमारे, वैसा ही जैसे हजार छिद्रों वाली नहीं है। लेकिन खतरनाक हैं वे लोग, जो भले दिखाई पड़ते हैं। बाल्टी में पानी भरने पर कएं में होता है। बड़ी वर्षा मालम होती है। क्योंकि वे इकट्ठा करते हैं। दस-पंद्रह दिन, महीना, दो महीना, वर्ष, | लेकिन जब मृत्यु के क्षण में हाथ लगती है बाल्टी जीवन की, तो दो वर्ष कोई इकट्ठा कर ले, तो फिर विस्फोट होता है। वह विस्फोट | उसमें बूंद भी नहीं बचती; सब रिक्त और खाली होता है। फिर इतना गहन हो जाता है, वह इतना इंटेंस हो जाता है कि वह | दो खतरे हैं इंद्रियों के साथ। एक भोग का खतरा है। भोग का आदमी खुद ही नहीं जानता कि क्या हो रहा है। हो जाता है। खतरा हजार छिद्रों वाली बाल्टी बन जाता है। दूसरा दमन का खतरा दुनिया के बड़े से बड़े पाप, इकट्ठे पाप का विस्फोट हैं। | है। दमन का खतरा ऐसा है, जैसे चाय की केटली का मुंह किसी ने छोटे-छोटे उपद्रव कर लेने वाले लोग महापाप नहीं कर पाते हैं। | बंद कर दिया हो और ऊपर से पत्थर रख दिया हो और नीचे से रोज-रोज बह जाता है सब; कभी गंगा नहीं बन पाती। उनका काम | आग भी दिए जा रहे हैं! तब फूटेगी केटली। झरने का ही होता है, उससे कुछ बहता नहीं, कोई पूर, बाढ़ नहीं | कृष्ण जब कहते हैं जितेंद्रिय, या महावीर जब कहते हैं जितेंद्रिय, आती। इकट्ठा हो जाता है जब बहुत, तब बाढ़ आती है। और जब या बुद्ध जब कहते हैं जितेंद्रिय, तो उनकी बात को समझना अत्यंत भीतर बहुत इकट्ठा हो जाता है, इतना कि जितने भी सेफ्टी वाल्व्स | ही कठिन हुआ है। हम तत्काल जितेंद्रिय का अर्थ लेते हैं, दमन। हैं-भीतर बहुत सेफ्टी वाल्व्स हैं—उन सबको तोड़कर जब क्योंकि हम भोग में खड़े हैं। हमारा मन दूसरी अति में अर्थ ले लेता विस्फोट होता है, तो व्यक्तित्व सदा के लिए खंड-खंड, कांच के | | है। भोग से हम परेशान हैं। जैसे ही हम सुनते हैं, जीतो इंद्रिय को; टुकड़ों जैसा हो जाता है, जिसका फिर जोड़ना मुश्किल होता है। हम कहते हैं, दबाओ इंद्रिय को। जीत बन जाती है दमन, हमारे मन स्प्लिट, सीजोफ्रेनिक हो जाता है। सब टूट जाता है। नहीं भी टूटे, में। और तभी भूल हो जाती है। 243

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