Book Title: Gita Darshan Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 379
________________ अहंकार की छाया है ममत्व छूट गए, वहां कौन होगा? वहां भी वही है। भीतर भी वही है, बाहर भी वही है। सब जगह वही है। परमात्मा का अर्थ है, अस्तित्व, दि एक्झिस्टेंस। हम भी उसी में जीते हैं, लेकिन हमें पता नहीं है। लेकिन जिस व्यक्ति ने अंतःकरण को शुद्ध कर लिया, उसे इसका पता हो जाता है। ठीक ऐसे ही पता | हो जाता है, जैसे कि दर्पण पर धूल जमी हो और चेहरा न बनता हो। और किसी ने दर्पण को साफ कर लिया और चेहरा बन जाए। और दर्पण में दिखाई पड़ जाए कि अरे, मैं तो यह रहा ! लेकिन जब धूल जमी थी, तब भी दर्पण पूरा दर्पण था। धूल हट गई, तब भी दर्पण वही दर्पण है। लेकिन जब धूल पड़ी थी, तो चेहरा बन नहीं पाता था, प्रतिफलित नहीं होता था; अब प्रतिफलित होता है। शुद्ध अंतःकरण मिरर लाइक, दर्पण के जैसा हो जाता है। इसलिए कृष्ण ने कहा, जिसका अंतःकरण शुद्ध है। जिसके अंतःकरण से सारी फलाकांक्षा की धूल हट गई, वासनाओं का सब जाल हट गया, कूड़ा-करकट सब फेंक दिया उठाकर, कर्ता का बोझ हटा दिया, सब परमात्मा पर छोड़ दिया। इतना शुद्ध और हलका हुआ अंतःकरण, शांत और मौन, निर्भार हुआ अंतःकरण, जानता है प्रतिपल कि मैं सच्चिदानंद परमात्मा में हूं। होता ही उसी में है सदा । लेकिन अब जानता है। अब ध्यानपूर्वक जानता है। अभी सोया हुआ था, अब जागकर जानता है। जैसे आप सोए हों। सूरज की रोशनी बरसती है चारों तरफ, आप सोए हैं। आपकी बंद पलकों पर सूरज की रोशनी टपकती है, लेकिन आपको कोई भी पता नहीं, आप सोए हैं, सूरज चारों तरफ बरस रहा है। आपके खून में सूरज की गर्मी जा रही है, आपके भीतर तक। आपका हृदय सूरज की गर्मी में धड़क रहा है। सब तरफ सूरज है, बाहर और भीतर, लेकिन आपको कोई पता नहीं है; आप सोए हैं। फिर एक आदमी उठ आया और उसने जाना और अब वह पाता है कि हर घड़ी सूरज में है। सोया हुआ भी सूरज में है, जागा हुआ भी सूरज में है। लेकिन सोए हुए को पता नहीं है, कांशसनेस नहीं है। अंतःकरण जिसका शुद्ध होता है, वह जानता है प्रतिपल, मैं परमात्मा में हूं। और जिसको यह पता चल जाए कि प्रतिपल मैं परमात्मा में हूं, स्वभावतः सच्चिदानंद की तिहरी घटना उसके जीवन में घट जाती है। ये सत, चित, आनंद, तीन शब्द हैं। यह भारत की मनीषा ने जो श्रेष्ठतम नवनीत निकाला है सारे जीवन के अनुभव से, उनका इन तीन शब्दों में जोड़ है। 353 सत! सत का अर्थ है, एक्झिस्टेंस; जिसका अस्तित्व है । चित! चित का अर्थ है, कांशसनेस, जिसमें चेतना है। आनंद! आनंद का अर्थ है, ब्लिस; जो सदा ही आनंद में है। ये तीन शब्द भारत की समस्त साधना की निष्पत्तियां हैं। अस्तित्व है किसका? पत्थर का ? पानी का, जमीन का ? आदमी का ? दिखाई पड़ता है, है नहीं। क्योंकि आज है और कल नहीं हो जाएगा। भारत उसको अस्तित्व कहता है, जो सदा है। जो बदल जाता है, उसके अस्तित्व को अस्तित्व नहीं कहता। उसके अस्तित्व का कोई मतलब नहीं है। अस्तित्व उसका है, जो अपरिवर्तनीय, नित्य है । वही है अस्तित्ववान । बाकी तो सब खेल है छाया का । बच्चे थे आप, फिर जवान हो गए, फिर बूढ़े हो गए। न तो बचपन का कोई अस्तित्व है; बचपन भी एक फेज है; एक्झिस्टेंस नहीं, चेंज ! बचपन एक परिवर्तन है। इसे जरा समझें। हम कहते हैं एक आदमी से, यह बच्चा है। कहना नहीं चाहिए। वैज्ञानिक नहीं है कहना। साइंटिफिक नहीं है। क्योंकि बच्चा है, ऐसा कहने से लगता है, कोई चीज स्टैटिक, ठहरी हुई है। कहना चाहिए, बच्चा हो रहा है। जवान हो रहा है। है की स्थिति में तो कोई जवान नहीं होता, नहीं तो बूढ़ा हो ही नहीं सकेगा फिर । बूढ़ा भी बूढ़ा नहीं होता । बूढ़ा भी होता रहता है। नदी बहती है, तो हम कहते हैं, नदी बह रही है। कहते हैं, नदी है। कहना नहीं चाहिए है, है । कहना चाहिए, नदी हो रही है। इस जगत में इज़, है शब्द ठीक नहीं है। गलत है। सब चीजें हो रही हैं। हम कहते हैं, वृक्ष है। जब हम कहते हैं, है, तब वृक्ष कुछ और हो गया। एक नई पत्ती निकल गई होगी। एक पुरानी पत्ती टपक गई होगी। एक फूल खिल गया होगा। एक कली आ गई होगी जब तक हमने कहा, है, तब तक वृक्ष बदल गया। बुद्ध के पास एक आदमी मिलने आया और उसने कहा कि अब मैं जाता हूं। बड़ी कृपा की आपने । फिर आऊंगा कभी । बुद्ध ने | कहा, तुम दुबारा अब न आ सकोगे। और तुमसे मैं कहता हूं कि तुम जो आए थे, वही तुम जा भी नहीं रहे हो। घंटेभर में गंगा का | बहुत पानी बह चुका है। यहां कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। इसलिए परमात्मा को हम कहते हैं, एक्झिस्टेंस और जगत को कहते हैं, चेंज । संसार है परिवर्तन

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