Book Title: Gita Darshan Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 404
________________ गीता दर्शन भाग-20 ही एक अनुभव की तरह, एक एक्सपीरिएंस की तरह मालूम होगी। | कहा कृष्ण ने। लगेगा कि मेरे पास एक अनुभव और बढ़ गया। मैं नहीं मिलूंगा।। परम मुक्ति का अर्थ है, मैं की मुक्ति नहीं, मैं से मुक्ति। फिर से मैं बना रहूंगा। मेरी पुरानी स्मृति बनी रहेगी। मेरी कंटिन्यूटी बनी | दोहराता हूं। परम मुक्ति का अर्थ है, मैं की मुक्ति नहीं, मैं से मुक्ति। रहेगी। मेरी पुरानी स्मृति में मैं एक स्मृति और जोड़ दूंगा कि मैंने | हम सबके मन में ऐसा ही होता है कि मुक्त हो जाएंगे, तो मोक्ष परमात्मा की झलक भी पाई। | में बड़े आनंद से रहेंगे। मुक्त हो जाएंगे, तो कोई दुख न रहेगा; हम ऐसे आदमी का अहंकार और मजबूत हो जाएगा। वह कहता | तो रहेंगे! मुक्त हो जाएंगे, तो कोई पीड़ा न रहेगी, कोई बंधन न फिरेगा कि मैंने परमात्मा को जान लिया। लेकिन परमात्मा पर जोर | | रहेगा; हम तो रहेंगे! लेकिन ध्यान रहे, सबसे बड़ी पीड़ा और कम, मैंने जान लिया, इस पर जोर उसका ज्यादा होगा। और अगर | | सबसे बड़ा बंधन मेरा होना है। मैं पर ज्यादा जोर है, तो अंधेरा और बढ़ गया। इसलिए जो लोग ऐसा सोचते हैं कि मोक्ष में सुख ही सुख होगा इसलिए कृष्ण ने बहुत स्पष्ट कहा, तदरूप हो जाता है जो! | और हम होंगे और सुख ही सुख होगा, वे गलती में हैं। अगर आप वही केवल वापस नहीं लौटता। तदरूप का अर्थ है, परमात्मा | | होंगे, तो दुख ही दुख होगा। अगर आपको अपने को बचाना हो, से एक ही हो जाता है। इसलिए जिसने सच में ही परमात्मा के साथ | तो नर्क बहुत ही सुगम, सुविधापूर्ण, सुरक्षित जगह है। अगर स्वयं तदरूपता पाई, वह यह नहीं कहेगा कि मैंने परमात्मा जाना। वह | को बचाना हो, तो नर्क बहुत ही सुव्यवस्थित बचाव है। कहेगा, मैं तो मिट गया। अब परमात्मा ही है। मैं तो हूं ही नहीं। ___ अगर मैं को बचाना है, तो नर्क की यात्रा करनी चाहिए। वहां मैं वह यह नहीं कहेगा, मुझे परमात्मा का अनुभव हुआ। वह कहेगा| | बहुत प्रगाढ़ हो जाता है। उसी की प्रगाढ़ता से इतनी अग्नि जलती कि मैं जब तक था, तब तक तो अनुभव हुआ ही नहीं। जब मैं नहीं | मालूम पड़ती है चारों तरफ इतनी लपटें, इतना दुख, इतनी पीड़ा। था, तब अनुभव हुआ। मुझे नहीं हुआ। | लेकिन कभी आपने सोचा कि आपके सारे दुख मैं के दख हैं! ध्यान रहे, मैं का और परमात्मा का वास्तविक मिलन कभी भी कभी आपने कोई ऐसा दुख पाया है, जो मैं के बिना पाया हो? सब नहीं होता। मैं और परमात्मा वस्तुतः कभी आमने-सामने नहीं होते। दुख मैं के दुख हैं। मैं के साथ आनंद का कोई उपाय नहीं है। मैं के एक झलक हो सकती है। लेकिन परमात्मा के सामने मैं तदरूप | साथ दुख आएगा ही छाया की तरह। इसलिए अगर कोई अपने मैं . अगर हो जाए, पूर्ण रूप से खड़ा हो जाए, तो तत्काल गिर जाता है। | को बचाकर स्वर्ग भी पहुंच गया, तो भूल हो रही है उससे; वह और विलीन हो जाता है। स्वर्ग आया नहीं होगा, नर्क ही आएगा। कबीर ने कहा है कि जब तक खोजता था, तब तक वह मिला | सुना है मैंने कि एक दिन स्वर्ग के द्वार पर एक आदमी ने जाकर नहीं। क्योंकि मैं था खोजने वाला। फिर खोजते-खोजते मैं खो | | दस्तक दी। स्वर्ग के द्वारपाल ने दरवाजा खोला। कहा, आएं; गया, तब वह मिला। जब मैं न बचा, तब वह मिला। और जब तक | | स्वागत है। फिर दरवाजा बंद हो गया। एक और गरीब-सा आदमी, मैं था, तब तक वह मिला नहीं। | दीन-हीन सा आदमी, पहले से, बहुत पहले से आकर दरवाजे के तदरूपता का अर्थ है, ईगोलेसनेस। खो जाए मेरा भाव कि मैं | बाहर खड़ा था। इतना दीन-हीन था कि दरवाजा खटखटाने की हूं। आ जाए यह स्थिति कि परमात्मा ही है। फिर लौटना नहीं है। | हिम्मत भी जुटा नहीं पाया था। यह देखकर कि दरवाजा खटखटाने क्योंकि लौटेंगे किसको लेकर अब? वह तो खो गया, जो लौट | | से खुलता है, और अंदर कोई आदमी ले गया, उसकी भी हिम्मत सकता था। बढ़ी। वह भी बाहर आया। तभी उसने देखा कि अंदर बैंड-बाजे इस जगत की सारी यात्रा अहंकार की यात्रा है, आना और जाना। | | बज रहे हैं और स्वागत-समारोह हो रहा है। शायद, जो आदमी ध्यान रहे, जन्मों की लंबी कथा, आत्मा की नहीं, अहंकार की कथा | भीतर गया है, उसका स्वागत-समारोह हो रहा होगा। . है। अहंकार ही आता और जाता। आत्मा न तो आती और न जाती। | उसने भी हिम्मत करके द्वार खटखटाया। फिर द्वारपाल ने एक बार भी जिसने यह जान लिया, उसका आवागमन गया। उसके | | दरवाजा खोला। कहा, भीतर आ जाओ। भीतर गया। सोचा, अब लिए लौटने का कोई उपाय न रहा; सब सेतु गिर गए। खंडित हो | बैंड-बाजे बजेंगे मेरे लिए भी। स्वागत-समारोह होगा। कुछ न गए मार्ग। लौटने वाला ही खो गया। इस स्थिति को परम मुक्ति | | हुआ। उसने द्वारपाल से पूछा, बैंड-बाजे कहां हैं? स्वागत कहां 378|

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