Book Title: Gita Darshan Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 445
________________ काम-क्रोध से मुक्ति मुक्त होने की वैज्ञानिक विधि की बात कही है। इसे और भी ठीक से समझ लेना जरूरी है। इतना जानना पर्याप्त नहीं है कि काम-क्रोध से मुक्त हो जाएंगे, तो ब्रह्म में प्रवेश मिल जाएंगा। इतना हम सब शायद जानते ही हैं। कैसे मुक्त हो जाएंगे? मेथडॉलाजी क्या है ? विधि क्या है? वही महत्वपूर्ण है। कृष्ण ने कहीं तीन बातें । एक, दोनों आंखों के ऊपर भ्रू-मध्य में, भृकुटी के बीच ध्यान को जो एकाग्र करे। दूसरा, नासिका से जाते हुए श्वास और आते हुए श्वास को जो सम कर ले; इन दोनों का जहां मिलन हो जाए। ध्यान हो भृकुटी मध्य में; श्वास हो जाए सम; जिस क्षण यह घटना घटती है, उसी क्षण व्यक्ति, वह जो क्रोध और काम की अंतर्धारा है, उसके पार निकल जाता है। इसे थोड़ा समझना होगा। हम सब जानते हैं कि हमारे शरीर के पास इंद्रियां हैं, जो बाहर के जगत से संबंध बनाती हैं। इंद्रियां न हों, संबंध छूट जाता है। आंख है। आंख न हो, तो प्रकाशित जगत से संबंध छूट जाता है। आंख के न होने से प्रकाश नहीं खोता, लेकिन प्रकाश दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। कान न हो, तो ध्वनि का लोक तिरोहित हो जाता है। नाक न हो, तो गंध का जगत नहीं है । इंद्रियां हमारी बाहर के जगत से हमें जोड़ती हैं। सात इंद्रियां हैं। साधारणतः पांच इंद्रियों की बात होती है। लेकिन दो इंद्रियां, साधारणतः उनकी बात नहीं होती, लेकिन अब विज्ञान स्वीकार करता है । जिन दिनों पांच इंद्रियों की बात होती थी, उन दिनों दो इंद्रियों का ठीक-ठीक बोध नहीं था । कुछ, जिन्हें समझ में और गहरी बात आई थी, उन्होंने छः इंद्रियों की बात की थी। लेकिन सात इंद्रियों की बात, पिछले पचास वर्षों में विज्ञान ने एक नई इंद्रिय को खोजा, तब से शुरू हुई। सात ही इंद्रियां हैं। हमारे कान में दो इंद्रियां हैं, एक नहीं। कान सुनता भी है, और कान में.वह हिस्सा भी है, जो शरीर को संतुलित रखता है, बैलेंस रखता है। वह एक गुप्त इंद्रिय है, जो कान में छिपी हुई है। इसलिए अगर कोई जोर से आपके कान पर चांटा मार दे, तो आप चक्कर खाकर गिर जाएंगे। वह चक्कर खाकर आप इसलिए गिरते हैं कि जो इंद्रिय आपके शरीर के संतुलन को सम्हालती है, वह डगमगा जाती है। अगर आप जोर से चक्कर लगाएं, तो चक्कर खत्म हो जाएगा, फिर भी भीतर ऐसा लगेगा कि चक्कर लग रहे हैं। क्योंकि वह जो कान की इंद्रिय है, इतनी सक्रिय हो जाती है। शराबी जब सड़क पर डांवाडोल चलने लगता है, तो और किसी कारण नहीं। शराब कान की उस इंद्रिय को प्रभावित कर देती है और उसके पैरों का संतुलन खो जाता है। कान में दो इंद्रियों का निवास है । छठवीं इंद्रिय का खयाल तो बहुत पहले भी आ गया था— अंतःकरण, हृदय। साधारणतः हम सबको पता है, ऐसा आदमी आप न खोज पाएंगे, जो कहे कि मुझे प्रेम हो गया है किसी से और सिर पर हाथ रखे। ऐसा आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। जब भी कोई प्रेम की बात करेगा, तो हृदय पर हाथ रखेगा। और | यह भी आश्चर्य की बात है कि सारी जमीन पर, दुनिया के किसी भी कोने में एक ही जगह हाथ रखा जाएगा। भाषाएं अलग हैं, | संस्कृतियां अलग हैं। किसी का एक-दूसरे से परिचय भी नहीं था, तब भी कहीं अनजाना खयाल होता है कि हृदय के पास कोई जगह है, जहां से भाव का संवेदन है। ऐसी सात इंद्रियां हैं - पांच, एक भाव इंद्रिय, और एक कान के भीतर संतुलन की इंद्रिय । ये सात इंद्रियां हमें बाहर के जगत से जोड़ती हैं। इनमें से कोई भी इंद्रिय नष्ट हो जाए, तो बाहर से हमारा उतना संबंध टूट जाता है। नष्ट न भी हो, आवृत हो जाए, तो भी | संबंध टूट जाता है। मेरी आंख बिलकुल ठीक है, लेकिन मैं बंद कर लूं, तो भी संबंध टूट जाता है। जैसे सात इंद्रियां बाहर के जगत से संबंधित होने के लिए हैं, यह मैंने जानकर आपसे कहा । ठीक वैसे ही सात केंद्र या सात इंद्रियां अंतर्जगत से संबंधित होने के लिए हैं। योग उन्हें चक्र कहता है। वे सात चक्र, ठीक इन सात इंद्रियों की तरह अंतर्जगत के द्वार हैं। कृष्ण ने उनमें से सबसे महत्वपूर्ण चक्र, जो अर्जुन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो सकता था, उसकी बात इस सूत्र में कही है। कहा है कि दोनों आंखों के मध्य में, माथे के बीच में ध्यान को केंद्रित कर । माथे के बीच में जो चक्र है, योग की दृष्टि से, योग के नामानुसार, | उसका नाम है, आज्ञा चक्र । वह संकल्प का और विल का केंद्र है। | जिस व्यक्ति को भी अपने जीवन में संकल्प लाना है, उसे उस चक्र पर ध्यान करने से संकल्प की गति शुरू हो जाती है। संकल्प डायनेमिक हो जाता है, गतिमान हो जाता है। इस चक्र पर ध्यान करने वाले व्यक्ति की संकल्प की शक्ति अपराजेय हो जाती है। 419 कृष्ण ने जानकर अर्जुन से कहा है। यह विशेषकर अर्जुन के लिए कहा गया सूत्र है। क्योंकि क्षत्रिय के लिए ध्यान आज्ञा चक्र पर ही करने की व्यवस्था है। क्षत्रिय की सारी जीवन - धारणा संकल्प की धारणा है। वही उसका सर्वाधिक विकसित हिस्सा है। उस पर ही वह

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