Book Title: Gita Darshan Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 444
________________ गीता दर्शन भाग-20 करीब-करीब पीरियाडिकल दौड़ता है। आप अपनी कामवासना की अपराध को स्वीकार कर ले, इससे बड़ी निर्दोषता, इससे बड़ी डायरी रखें, तो आप बराबर प्रेडिक्ट कर सकते हैं कि किस दिन, इनोसेंस और कोई भी नहीं है। तुम बाहर जाओ। किस रात, आपके मन को कामवासना पकड़ लेगी। परमात्मा के जगत में भी केवल वे ही लोग संसार के बाहर जा शक्ति रोज इकटी करते चले जाते हैं आप. फिर मौका पाकर | | पाते हैं, जो अपनी वास्तविक स्थिति को स्वीकार करने में समर्थ हैं। वह फूटती है। अगर मौका न मिले, तो मौका बनाकर फूटती है। अपने को जो धोखा देगा, देता रहे। परमात्मा को धोखा नहीं दिया और अगर बिलकुल मौका न मिले, तो फ्रस्ट्रेशन में बदल जाती है। जा सकता है। भीतर बड़े विषाद और पीड़ा में बदल जाती है। काम और क्रोध हमारे पास चौबीस घंटे मौजूद हैं। उनकी क्रोध और काम हमारी स्थितियां हैं, घटनाएं नहीं। चौबीस घंटे अंतर्धारा बह रही है। जैसे नील नदी बहती है सैकड़ों मील तक हम उनके साथ हैं। इसे जो स्वीकार कर ले, उसकी जिंदगी में | जमीन के नीचे, खो जाती है। पता ही नहीं चलता, कहां गई! नीचे बदलाहट आ सकती है। जो ऐसा समझे कि कभी-कभी क्रोध | बहती रहती है। लेकिन बहती रहती है। ऐसे ही चौबीस घंटे नदी होता है, वह अपने से बचाव कर रहा है। वह खुद को समझाने | आपके क्रोध की, काम की, नीचे बहती रहती है। जरा भीतर डुबकी के लिए धोखेधड़ी के उपाय कर रहा है। जो स्वीकार कर ले, वह | लेंगे, तो फौरन पाएंगे कि मौजूद है। कभी-कभी उभरकर दिखती बच सकता है। | है, नहीं तो अंडरग्राउंड है। जमीन के अंदर चलती रहती है। जब __ फ्रेडरिक महान ने अपनी डायरी में एक संस्मरण लिखा है। | प्रकट होती है, उसको आप मत समझना कि यही क्रोध है। अगर लिखा है उसने कि मैं अपनी राजधानी के बड़े कारागृह में गया। | | उतना ही क्रोध होता, तो हर आदमी मुक्त हो सकता था। वह तो सम्राट स्वयं आ रहा है. स्वभावतः हर अपराधी ने उसके पैर पकडे. सिर्फ क्रोध की एक झलक है। जब प्रकट होती है. तब मत समझना हाथ जोड़े और कहा कि अपराध हमने बिलकुल नहीं किया है। यह | | कि इतना ही काम है। उतना ही काम होता, तो बच्चों का खेल था। तो कुछ शरारती लोगों ने हमें फंसा दिया। किसी ने कहा कि हम तो | | भीतर बड़ी अंतर्धारा बह रही है। होश में ही न थे, हमसे करवा लिया किन्हीं षड्यंत्रकारियों ने। | कृष्ण कहते हैं, इन दोनों से जो मुक्त हो जाता है, इनके जो पार किन्हीं ने कहा कि यह सिर्फ कानून-हम गरीब थे, हम बचा न हो जाता है, वही केवल शांत ब्रह्म को उपलब्ध होता है। सके अपने को; बड़ा वकील न कर सके, इसलिए हम फंस गए हैं। अमीर आदमी थे हमारे खिलाफ, वे तो बच गए, और हम सजा काट रहे हैं। स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः । पूरे जेल में सैकड़ों अपराधियों के पास फ्रेडरिक गया। हरेक ने प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तर चारिणौ।। २७ ।। कहा कि उससे ज्यादा निर्दोष आदमी खोजना मुश्किल है! अंततः यतेन्द्रियमनोबुद्धिमुनिमोक्षपरायणः । सिर्फ एक आदमी सिर झुकाए बैठा था। फ्रेडरिक ने कहा, तुम्हें कुछ विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।। २८।। नहीं कहना है ? उस आदमी ने कहा कि माफ करें! मैं बहुत अपराधी और हे अर्जुन! बाहर के विषय भोगों को न चिंतन करता आदमी हूं। जो भी मैंने किया है, सजा मुझे उससे कम मिली है। हुआ बाहर ही त्यागकर और नेत्रों को भृकुटी के बीच में __फ्रेडरिक ने अपने जेलर को कहा, इस आदमी को इसी वक्त जेल स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान से मुक्त कर दो; कहीं ऐसा न हो कि बाकी निर्दोष और भले लोग | वायु को सम करके जीती हुई हैं इंद्रियां, मन और बुद्धि इसके साथ रहकर बिगड़ जाएं! इसे फौरन जेल के बाहर कर दो। जिसकी, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से कहीं ऐसा न हो कि बाकी इनोसेंट लोग, बाकी पूरा जेलखाना तो रहित है, वह सदा मुक्त ही है। निर्दोष लोगों से भरा हुआ है, कहीं इसके साथ रहकर वे बिगड़ न जाएं, इसे इसी वक्त मुक्त कर दो। __ वह आदमी बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि आप क्या कह रहे | द स सूत्र में कृष्ण ने विधि बताई है। कहा पहले सूत्र में, हैं? मैं अपराधी हूं। फ्रेडरिक महान ने कहा कि कोई आदमी अपने | २ काम-क्रोध से जो मुक्त है! इस सूत्र में काम-क्रोध से 418

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