Book Title: Gita Darshan Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 421
________________ अकंप चेतना के बाहर हो गई बात। अब आप नहीं रोक सकते। अब बात बाहर | सके, तो भी वहीं पहुंच जाएगा। चली गई। एक अदभुत ग्रंथ है भारत में। और मैं समझता हूं, उस ग्रंथ से जब आपको क्रोध उठता है, जब उसकी पहली झलक भीतर | | अदभुत ग्रंथ पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। उस ग्रंथ का नाम है, विज्ञान आनी शुरू होती है कि उठा; अभी वह स्वेच्छा के भीतर है। लेकिन | | भैरव। छोटी-सी किताब है। इससे छोटी किताब भी दुनिया में जब खून में एड्रिनल तत्व छूट गया और खून में जहर पहुंच गया | | खोजनी मुश्किल है। कुल एक सौ बारह सूत्र हैं। हर सूत्र में एक ही और खून ने क्रोध को पकड़ लिया, फिर आपके हाथ के बाहर हो बात है। हर सत्र में एक ही बात। पहले सत्र में जो बात कह दी है. गया। लेकिन पहले, जब आप में क्रोध उठता है, तो थोड़ी देर तक | | वही एक सौ बारह बार दोहराई गई है—एक ही बात! और हर दो एड्रिनल ग्रंथियां, जिनमें जहर भरा हुआ है आपके शरीर में, प्रतीक्षा | सूत्र में एक विधि पूरी हो जाती है। करती हैं कि शायद यह आदमी अभी भी रुक जाए। शायद रुक । पार्वती पूछ रही है शंकर से, शांत कैसे हो जाऊं? आनंद को जाए। आप नहीं रुकते, बढ़ते चले जाते हैं। फिर मजबूरी में जहर | | कैसे उपलब्ध हो जाऊं? अमृत कैसे मिलेगा? और दो-दो पंक्तियों की ग्रंथियों को जहर छोड़ देना पड़ता है। जहर के छूटते ही अब | | में शंकर उत्तर देते हैं। दो पंक्तियों में वे कहते हैं, बाहर जाती है आपके हाथ के बाहर हो गया। | श्वास, भीतर आती है श्वास। दोनों के बीच में ठहर जा; अमृत को ठीक वैसे ही कामवासना में भी वीर्य की ग्रंथियां एक सीमा तक उपलब्ध हो जाएगी। एक सूत्र पूरा हुआ। बाहर जाती है श्वास, प्रतीक्षा करती हैं कि शायद यह आदमी रुक जाए। एक सीमा के भीतर आती है श्वास; दोनों के बीच ठहरकर देख ले, अमृत को बाद जब देखती हैं कि यह आदमी रुकने वाला नहीं है, तो वीर्य की उपलब्ध हो जाएगी। ग्रंथियां वीर्य को छोड़ देती हैं। फिर स्वेच्छा के बाहर हो गया। | पार्वती कहती है, समझ में नहीं आया। कुछ और कहें। और - शरीर की सारी व्यवस्था, मन की सारी व्यवस्था एक सीमा के | शंकर दो-दो सूत्र में कहते चले जाते हैं। हर बार पार्वती कहती है, बाद स्वेच्छा के बाहर हो जाती है। तो अगर आपको अनासक्त होना | नहीं समझ में आया। कुछ और कहें। फिर दो पंक्तियां। और हर हो, तो जब स्वेच्छा के भीतर चल रहा है काम, तभी जाग जाना | | पंक्ति का एक ही मतलब है, दो के बीच ठहर जा। हर पंक्ति का जरूरी है। जब स्वेच्छा के बाहर चला गया, तब जागने से पछतावे | एक ही अर्थ है, दो के बीच ठहर जा। बाहर जाती श्वास, अंदर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, प्रायश्चित्त के अतिरिक्त और | जाती श्वास। जन्म और मृत्यु; यह रहा जन्म, यह रही मौत; दोनों कुछ भी नहीं है। के बीच ठहर जा। पार्वती कहती है, समझ में कुछ आता नहीं। कुछ इसलिए जितने जल्दी हो सके, जैसे ही आपको लगे कि कोई| | और कहें। चीज सुंदर मालूम पड़ी कि फौरन भीतर जाएं और देखें कि वासना एक सौ बारह बार! पर एक ही बात, दो विरोधों के बीच में और वृत्तियां उठ रही हैं। यही मौका है। जरा-सी चूक, और वृत्तियां | | ठहर जा। प्रीतिकर-अप्रीतिकर, ठहर जा-अमृत की उपलब्धि। आसक्ति को निर्मित कर लेंगी। पक्ष-विपक्ष, ठहर जा-अमृत की उपलब्धि। आसक्ति-विरक्ति, निर्मित आसक्ति को विघटित करना बहुत कठिन है, अनिर्मित | | ठहर जा-अमृत की उपलब्धि। दो के बीच, दो विपरीत के बीच जो आसक्ति को बनने देने से रोकना बहुत सरल है। जब तक नहीं बनी | ठहर जाए, वह गोल्डन मीन, स्वर्ण सेतु को उपलब्ध हो जाता है। है, अगर जाग गए, तो नहीं बनेगी। बन गई, जाग भी गए, तो बहुत | यह तीसरा सूत्र भी वही है। और आप भी अपने-अपने सूत्र कठिनाई हो जाएगी। बहुत कांप्लेक्स, बहुत जटिल हो जाएगी। | खोज सकते हैं, कोई कठिनाई नहीं है। एक ही नियम है कि दो और यह हमेशा बेहतर है, प्रिवेंशन इज़ बेटर दैन क्योर। अच्छा है, | विपरीत के बीच ठहर जाना, तटस्थ हो जाना। सम्मान-अपमान, रोक लें पहले, बजाय पीछे चिकित्सा करनी पड़े। अच्छा है, बीमारी | ठहर जाओ-मुक्ति। दुख-सुख, रुक जाओ-प्रभु में प्रवेश। पकड़े, उसके पहले सम्हल जाएं; बजाय इसके कि बीमारी पकड़ मित्र-शत्रु, ठहर जाओ-सच्चिदानंद में गति। जाए और फिर बिस्तर पर लगे और चिकित्सा हो। कहीं से भी दो विपरीत को खोज लेना और दो के बीच में तटस्थ __ आसक्ति के निर्मित होने के पहले ही जाग जाना जरूरी है। कृष्ण | हो जाना। न इस तरफ झुकना, न उस तरफ। समस्त योग का सार तीसरी बात कहते हैं कि अर्जुन, अगर वस्तुओं में तू अनासक्त रह | | इतना ही है, दो के बीच में जो ठहर जाता, वह जो दो के बाहर है,

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