Book Title: Gita Darshan Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 331
________________ सम्यक दृष्टि तो फुलफिल्ड, कुछ भरकर लौट रहा हूं; कुछ पाकर लौट रहा हूं। नहीं, आप अपने स्वधर्म को नहीं पहचान रहे हैं। इसलिए बहिर्मुखी को एकांत में रख दो, तो निर्जीव हो जाएगा। फीका, पीला परेशान हैं। और चूंकि पूरब का धर्म का बड़ा हिस्सा, अगर हम पड़ जाएगा। जिंदगी लगेगी बेकार है। कुछ सार नहीं। क्लब में | कृष्ण को छोड़ दें पूरब में, तो पूरब के बुद्ध और महावीर, नागार्जुन रख दो, मंदिर में रख दो, मस्जिद में रख दो, भीड़ में ले | और शंकर, सब के सब अंतर्मुखी हैं। उन सब की बातों ने पूरब के आओ-जिंदगी वापस लौट आएगी। पत्ते लहलहा उठेंगे। फूल | | मन को अंतर्मुखी धर्म का खयाल दे दिया है। और सौ में से खिलने लगेंगे। | निन्यानबे आदमी बहिर्मुखी हैं। इसलिए बड़ी बेचैनी हो गई, बड़ी यह एक-एक व्यक्ति को अपने जीवन की स्थितियों में जांचते मुश्किल हो गई। रहना चाहिए कि उसकी अंतर्धारा बाहर की तरफ बहने को आतुर तो बहिर्मुखी आदमी सोचता है, अपने वश का नहीं है धर्म। रहती है या भीतर की तरफ बहने को आतुर रहती है। टर्निंग इन, अपने भाग्य में नहीं है। मौन तो होता ही नहीं मन; ठहरता ही नहीं। ऐसी है उसकी धारा, भीतर की तरफ मुड़ती चली जाती है; कि ऐसी | | भीतर तो कुछ पता ही नहीं चलता। भीतर तो जाना होता ही नहीं। है धारा कि बाहर की तरफ दौड़ती है, टर्निंग आउट। तो जरूर हम किसी पिछले जन्मों के पापों और कर्मों का फल भोग यह प्रत्येक व्यक्ति अपने को कस ले सकता है। भीड़ में अच्छा लगता है कि अकेले में ? कोई नहीं होता है कमरे में, सन्नाटा होता | नहीं; जरूरी नहीं है। आप सिर्फ एक भ्रांति का फल भोग रहे हैं। है, तब अच्छा लगता है ? कि कमरे में कोई हो, तभी अच्छा लगता | आप ठीक से समझ नहीं पाए कि आप बहिर्मुखी हैं। अगर है? खाली बैठे रहते हैं, तो बेचैनी मालूम पड़ती है? कि खाली | | बहिर्मुखी हैं, तो धर्म की रूप-रेखा आपके लिए बिलकुल अलग बैठे रहते हैं. तो रिलैक्स्ड. शांत. मौन मालम पडता है? घर में होगी। अगर बहिर्मखी हैं. तो आपको धर्म भी ऐसा चाहिए जो मेहमान आते हैं, तब अच्छा लगता है? कि जब जाते हैं. तब | आपकी बहिर्मुख चेतना का उपयोग कर सके। अंतर्मुखी धर्म के अच्छा लगता है? लिए, ध्यान; बहिर्मुखी धर्म के लिए, प्रार्थना। इसकी थोड़ी जांच करते रहना चाहिए। नहीं मेहमान आते हैं, तो कभी आपने खयाल किया कि ध्यान और प्रार्थना बड़े अलग बेचैन हो जाती है तबियत, उठाकर फोन करने लगते हैं? अखबार रास्ते हैं! ध्यान का मतलब है, अंतर्मुखी का धर्म। प्रार्थना का अर्थ में जरा देर हो जाती है आने में, तो बेचैनी होती है, रेडियो खोल लेते है, बहिर्मुखी का धर्म। ध्यान में परमात्मा की भी गुंजाइश नहीं है। हैं? कभी अपने को अकेला छोड़ते हैं या नहीं छोड़ते हैं? कोई न | ध्यान का मतलब है, अकेले, अकेले, और अकेले। ध्यान का कोई होना ही चाहिए-कंपेनियन, साथी, संगी, मित्र, पत्नी, पति, मतलब है, उस जगह पहुंच जाना है, जहां मैं ही अकेला रह जाऊं बच्चे-कोई न कोई होना ही चाहिए? कि कभी ऐसा भी लगता है और कुछ न बचे। और प्रार्थना का मतलब है, परमात्मा; अकेले कि कोई भी न हो? अकेला! किस चीज का स्वाद है, इसे नहीं, दो। और प्रार्थना का मतलब है, उस जगह पहुंच जाना अंततः पहचानना चाहिए। | कि परमात्मा ही बचे, मैं न बचूं। इन दोनों का अंतिम फल एक हो आज के युग में सौ आदमी में मुश्किल से एक आदमी स्वभावतः | | जाएगा। लेकिन प्रार्थना दूसरे से शुरू होगी, परमात्मा से; और अंतर्मुखी है। निन्यानबे मौके पर आप पाएंगे, आप बहिर्मुखी हैं। ध्यान स्वयं से शुरू होगा। और अगर लगता है कि आप बहिर्मुखी हैं, तो भूलकर भी अंतर्मुखी | ___ इसलिए ध्यान के जो धर्म हैं, जैसे जैन, वे परमात्मा को इनकार धर्म की बातों में मत पड़ जाना, अन्यथा बहुत कठिनाई में पड़ेंगे। | कर देंगे। परमात्मा को इनकार करने का बुनियादी कारण यह नहीं और उसका एक ही परिणाम होगा, फ्रस्ट्रेशन। अगर बहिर्मुखी | | है कि परमात्मा नहीं है। परमात्मा को इनकार करने का बुनियादी व्यक्ति अंतर्मुखी बातों में पड़ जाए, तो वह अपने को पापी, | | कारण यह है कि महावीर का स्वधर्म अंतर्मुखी है। महावीर इंट्रोवर्ट अपराधी, गिल्टी, नारकीय समझेगा। क्योंकि वह अंतर्मुखी तो हो हैं। परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है, नान एसेंशियल है। महावीर नहीं पाएगा। तब वह समझेगा कि हम न मालूम किन जन्मों का पाप के लिए परमात्मा की कोई भी जरूरत नहीं है। इसलिए महावीर भोग रहे हैं! ध्यान करने बैठते हैं, एक क्षण ध्यान नहीं लगता! न कहेंगे, मैं ही परमात्मा हूं, और कोई परमात्मा नहीं है। जब वे मालूम कहां-कहां की बातें खयाल आती हैं! | अंतर्मुख होकर पूरे अपने भीतर पहुंचेंगे, तो पहुंच जाएंगे वहीं, जहां 305]

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