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दि० जैन व्रतोद्यापन संग्रह ।
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मध्यपूर्वादिदिक्षु सवर्णाक्षतपुञ्जान् स्थापयित्वा क्रमेण कुंकुमादिद्य तदर्भासनानि
तदुपरि सूर्यादिनां विन्यसेत् ।
(मध्य में तथा पूर्वादि दिशाओं क्रमपूर्वक सवर्ण अक्षतपुञ्जोंसे सूर्यादि ग्रहों की स्थापना करके कुंकुमादिसे युक्त दर्भासनकी योजना करे | )
इति दर्भन्यासः ।
अथ पूजा प्रारभ्यते ।
उपजातिः ।
श्रीनाभिसूनोः पदपद्म युग्म
नखाः सुखानि प्रथयन्तु ते वः समन्नमन्ना किशिरोऽङ्घ्रिपीठेसंदत्तविस्रस्वमणीयितं यैः ॥
पूर्व, चन्द्रको आग्नय, मङ्गलकी दक्षिण, बुधकी नैऋत्य, गुरुकी पश्चिम, शुक्रकी वायव्य, शनिको उत्तर, राहुको इशान और केतुको उद्धर्व दिशा समझना चाहिये । उद्धर्व दिशाका स्वामी चन्द्रमा होता है । ग्रहोंको दिशाओं का यह वर्णन इसी पुस्तकमें आगे छपे " शान्तिचक्र विधान" की "दशदिक्पाल पूजा" के अनुसार लिखा गया है । " रक्तस्तुल्य" यह श्लोक "दशदिक्पाल पूजा" के प्रारम्भ में ज्योंका त्यों आया है । परन्तु इस नवग्रह पूजाके प्रारम्भमें “माणिक्यं च रवि मध्ये" आदि श्लोकों द्वारा ग्रहों की दिशाओं का क्रम अन्य प्रकार बतलाया है । इसलिये उसी प्रकार मण्डल बनाकर पूजा करना चाहिये ।
१ - वर्णो भवेद्यस्यग्रहस्य योहि तं तेन वर्णेन निवेशयन्तु । प्रमोद मायान्ति यतः सदृशेवंर्णा चनैस्ते हि मतं बुधानाम् ॥