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धवला पुस्तक 1
इष्ट नहीं है।।6।।
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पर्यायार्थिक नय का आधार
मूल - णिमेणं पज्जव - णयस्स उज्जुसुद-वयण - विच्छेदो। तस्स दु सद्दादीया साहुपसाहा सुहुमभेया ||7|| ऋजुसूत्र वचन का विच्छेदरूप वर्तमान काल ही पर्यायार्थिक नय का मूल आधार है और शब्दादिक नय शाखा-उपशाखा रूप उसके उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेद हैं।।7 ॥
विशेषार्थ - वर्तमान समयवर्ती पर्याय को विषय करना ऋजुसूत्र नय है। इसलिये जब तक द्रव्यगत भेदों की ही मुख्यता रहती है, तब तक व्यवहार नय चलता है और जब कालनिमित्तक भेद प्रारम्भ हो जाता है, तभी से ऋजुसूत्र नय का प्रारम्भ होता है। शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इन तीन नयों का विषय भी वर्तमान पर्यायमात्र है, परंतु उनमें ऋजुसूत्र के विषयभूत अर्थ के वाचक शब्दों की मुख्यता से अर्थभेद इष्ट है, इसलिये उनका विषय ऋजुसूत्र से सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम माना गया है। अर्थात् ऋजुसूत्र के विषय में लिंग आदि से भेद करने वाला शब्दनय, शब्दनय से स्वीकृत लिंग, वचन वाले शब्दों में व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद करने वाला समभिरूढ नय और पर्याय शब्द को उस शब्द से ध्वनित होने वाले क्रियाकाल में ही वाचक मानने वाला एवंभूत नय समझना चाहिये। इस तरह से शब्दादिक नय उस ऋजुसूत्र नय की शाखा-उपशाखा हैं, यह सिद्ध हो जाता है। अतएव ऋजुसूत्र नय पर्यायार्थिक नय का मूल आधार माना गया है।।7।।
नय की अपेक्षा पदार्थ का स्वरूप
उप्पज्जति वियंति य भावा णियमेण पज्जव णयस्स । दव्वट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पण्णमविणट्ठ ।। 8 ।।