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धवला पुस्तक 1
विशेषार्थ - आगम में द्रव्य का लक्षण दो प्रकार से बतलाया गया है, एक 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' अर्थात् जिसमें गुण और पर्याय पाये जाएं उसे द्रव्य कहते हैं और दूसरा 'उत्पाद - व्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' व 'सद् द्रव्यलक्षणम्' जो उत्पत्ति, विनाश और स्थिति - स्वभाव होता है वह सत् है और सत् ही द्रव्य का लक्षण है। यहाँ पर नय की निरुक्ति करते समय द्रव्य के इन दोनों लक्षणों पर दृष्टि रखी गई प्रतीत होती है। नय किसी विवक्षित धर्म द्वारा ही द्रव्य का बोध कराता है। नय के इस लक्षण का संकेत भी ‘गुणपज्जएहि' पद द्वारा हो जाता है। यह पद तृतीया विभक्ति सहित होने से उसे द्रव्य के लक्षण में तथा निरुक्ति के साथ नय के लक्षण में भी ले सकते हैं ||4||
नय के भेद
तित्थयर-वयण संगह- विसेस - पत्थार - मूल वायरणी । दव्वट्ठिओ य पज्जय-णयो य सेसा वियप्पपा सि ।। 5
तीर्थकरों के वचनों के सामान्य प्रस्तार का मूल व्याख्यान करने वाला द्रव्यार्थिक नय है और उन्हीं वचनों के विशेष प्रस्तार का मूल व्याख्याता पर्यायार्थिक नय है। शेष सभी नय इन दोनों नयों के विकल्प अर्थात् भेद हैं।।5।।
विशेषार्थ - जिनेन्द्रदेव ने दिव्यध्वनि के द्वारा जितना भी उपदेश दिया है, उसका अभेद अर्थात् सामान्य की मुख्यता से प्रतिपादन करने वाला द्रव्यार्थिक नय है और भेद अर्थात् पर्याय की मुख्यता से प्रतिपादन करने वाला पर्यायार्थिक नय है। ये दोनों ही नय समस्त विचारों अथवा
शास्त्रों के आधारभूत हैं, इसलिये उन्हें यहाँ मूल व्याख्याता कहा है। शेष नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द आदि इन दोनों नयों के अवान्तर भेद हैं।।5।।