Book Title: Dhavala Uddharan Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir View full book textPage 8
________________ शास्त्रव्याख्यान की पद्धति मंगल - निमित्त हेऊ परिमाणं णाम तह य कत्तारं । वागरिय छप्पि पच्छा वक्खाणउ सत्थमाइरिओ ।। 1 ॥ मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता, इन छह अधिकारों का व्याख्यान करने के पश्चात् आचार्य शास्त्र का व्याख्यान करें। विशेषार्थ - शास्त्र के प्रारम्भ में पहिले मंगलाचरण करना चाहिये। पीछे जिस निमित्त से शास्त्र की रचना हुई हो, उस निमित्त का वर्णन करना चाहिये। इसके बाद शास्त्र - प्रणयन के प्रत्यक्ष और परम्परा - हेतु का वर्णन करना चाहिये । अनन्तर शास्त्र का प्रमाण बताना चाहिये। फिर ग्रन्थ का नाम और आम्नाय क्रम से उसके मूलकर्त्ता, उत्तरकर्त्ता और परम्परा-कर्त्ताओं का उल्लेख करना चाहिये। इसके बाद ग्रंथ का व्याख्यान करना उचित है। ग्रंथरचना का यह क्रम आचार्य परम्परा से चला आ रहा है और इस ग्रंथ में भी इसी क्रम से व्याख्यान किया गया है।।1।। शब्दात्पदप्रसिद्धिः पदसिद्धेरर्थनिर्णयो भवति । अर्थात्तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात्परं श्रेयः ।। 2 ।। शब्द से पद की प्रसिद्धि होती है, पद की सिद्धि से उसके अर्थ का निर्णय होता है, अर्थ-निर्णय से तत्त्वज्ञान अर्थात् हेयोपादेय विवेक की प्राप्ति होती है और तत्त्वज्ञान से परम कल्याण होता है ||2||Page Navigation
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