Book Title: Dhavala Uddharan
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 9
________________ धवला उद्धरण 4 नय का स्वरूप उच्चारियमत्थपदं णिक्खेवं वा कयं तु दट्ठूण। अत्थं णयति तच्चत्तमिदि तदो ते णया भणिया ।। 3 ।। उच्चारण किये गये अर्थ- पद और उसमें किये गये निक्षेप को देखकर अर्थात् समझकर पदार्थ को ठीक निर्णय तक पहुँचा देते हैं, इसलिये वे नय कहलाते हैं। 3 ॥ विशेषार्थ - आगम के किसी श्लोक, गाथा, वाक्य अथवा पद के ऊपर से अर्थ-निर्णय करने के लिये पहले निर्दोष पद्धति से श्लोकादि का उच्चारण करना चाहिये, तदनन्तर पदच्छेद करना चाहिये, उसके बाद उसका अर्थ कहना चाहिये, अनन्तर पद- निक्षेप अर्थात् नामादि विधि से नयों का अवलंबन लेकर पदार्थ का ऊहापोह करना चाहिये। तभी पदार्थ के स्वरूप का निर्णय होता है । पदार्थ - निर्णय के इस क्रम को दृष्टि में रखकर गाथाकार ने अर्थ - पद का उच्चारण करके और उसमें निक्षेप करके नयों के द्वारा तत्त्व-निर्णय का उपदेश दिया है। गाथा में ' अत्थपदं इस पद से पदच्छेद और उसका अर्थ ध्वनित किया गया है। जितने अक्षरों से वस्तु का बोध हो उतने अक्षरों के समूह को 'अर्थ-पद' कहते हैं। 'णिक्खेव' इस पद से निक्षेप - विधि की, और 'अत्थं णयति तच्चत्तं' इत्यादि पदार्थों से पदार्थ-निर्णय के लिये नयों की आवश्यकता बतलाई गई है।।3।। णयदि त्तिं गयो भणिओ बहूहि गुण - पज्जएहि जं दव्वं । परिमाण - खेत्त-कालंतरसु अविणट्ठ-सम्भावं ॥ 4 ॥ अनेक गुण और उनके अनेक पर्यायों सहित, अथवा उनके द्वारा एक परिणाम से दूसरे परिणाम में, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में और एक काल से दूसरे काल से अविनाशी - स्वभावरूप से रहने वाले द्रव्यों को जो ले जाता है, अर्थात् उसका ज्ञान करा देता है, उसे नय कहते हैं || 4 ||

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