Book Title: Dhavala Uddharan
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 11
________________ धवला उद्धरण 6 द्रव्यार्थिक नय का आधार दव्वट्ठिय-य-पयई सुद्धा संगह - परूवणां-विसयो । पछिरूवं पुण वयणत्थ - णिच्छयो तस्स ववहारो ।। 6 ।। प्रत्येक भेद के प्रति शब्दार्थ का निश्चय करना उसका व्यवहार है। अर्थात् व्यवहारनय की प्ररूपणा को विषय करना द्रव्यार्थिक नय की अशुद्ध प्रकृति है।।6।। विशेषार्थ- वस्तु सामान्य - विशेष - धर्मात्मक है। उनमें सामान्य-धर्म को विषय करना द्रव्यार्थिक और विशेष-धर्म को (पर्याय को) विषय करना पर्यायार्थिक नय है। उनमें से संग्रह और व्यवहार के भेद से द्रव्यार्थिक नय दो प्रकार का है। जो अभेद को विषय करता है उसे संग्रह नय कहते हैं और जो भेद को विषय करता है उसे व्यवहार नय कहते हैं। ये दोनों ही द्रव्यार्थिक नय की क्रमशः शुद्ध और अशुद्ध प्रकृति हैं। जब तक द्रव्यार्थिक नय घट, पट आदि विशेष भेद न करके द्रव्य सत्स्वरूप है, इसप्रकार द्रव्य को अभेद रूप से ग्रहण करता है तब तक वह उसकी शुद्ध प्रकृति समझनी चाहिये । इसे ही संग्रह नय कहते हैं तथा सत्स्वरूप जो द्रव्य है, उसके जीव और अजीव ये दो भेद हैं। जीव के संसारी और मुक्त इस तरह दो भेद हैं। अजीव भी पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इस तरह का पाँच भेदरूप है। इस प्रकार उत्तरोत्तर प्रभेदों की अपेक्षा अभेद को स्पर्श करता हुआ भी जब वह भेदरूप से वस्तु को ग्रहण करता है, तब वह उसकी अशुद्ध प्रकृति समझनी चाहिये। इसी को व्यवहार नय कहते हैं। यहाँ पर इतना विशेष समझना चाहिये कि वस्तु में चाहे जितने भेद किये जावें, परंतु वे काल निमित्तक नहीं होना चाहिये, क्योंकि वस्तु में काल निमित्तक भेद की प्रधानता से ही पर्यायार्थिक नय का अवतार होता है । द्रव्यार्थिक नय की अशुद्ध प्रकृति में द्रव्यभेद अथवा सत्ताभेद ही इष्ट है, कालनिमित्तक भेद

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