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धर्म आवश्यक क्यों ?
' त्वदास्यलासिनी नेत्रे, त्वदुपास्ति करौ करौ । त्वद्गुणः श्रोत्रिणी श्रोत्रे, भूयास्तां सर्वदा मम ॥ '
भगवन् मेरी दोनों आंखे आपके मुंह को देखने में तल्लीन रहें । दोनों हाथ उपासना में जुड़े रहें। दोनों कान आपकी स्तुति को सुनते रहें । भगवान के प्रति भक्त की यह कामना है।
जिन आंखों में पवित्र वस्तु देखने की भावना होती है, वे आंखें पवित्र हो जाती हैं। जो हाथ भगवान की उपासना में जुड़ जाते हैं, वे हाथ पवित्र हो जाते हैं । फिर उनसे अशुभ काम नहीं होते ।
एक विचारक ने कल्पना की है भगवान ने मनुष्य को दो हाथ इसलिए दिए हैं कि एक हाथ से खाना खाए और दूसरे हाथ से मारता रहे। इस कल्पना के पीछे भूमिका यह हो सकती है कि उसने आदमी को दूसरों को सताते हुए देखा हो ।
जो कान भगवान् की स्तुति में रस लेते हैं, वे अपवित्र बात सुनने में रुचि नहीं लेते। हमारे नेत्र, हाथ और कान पवित्र हों । इन तीनों के पवित्र होने से इन्द्रियां पवित्र बन जाती हैं, मन पवित्र बन जाता है और इनके पवित्र होने से आत्मा पवित्र हो जाती है । जब आत्मा पवित्र हो जाती है तब धर्म की बात
धर्म आवश्यक क्यों ? म ११
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