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या श्रावक, जिसने अन्तर की गांठ नहीं खोली है, उसे सिद्धि नहीं मिल सकती। सम्यक्त्व के बिना छह-छह मास की तपस्या भी की, आतापना भी ली, परन्तु सिद्धि नहीं मिली। मोक्ष से दूरी और बढ़ गयी। इतनी कठोर साधना, इतना कठोर आचरण भी किया, फिर भी मुक्ति नहीं मिली। क्या कारण है? कारण स्पष्ट है-चाबी ठीक से घूमी नहीं, इसलिए ताला नहीं खुला। जो चाबी को ठीक से घुमाना नहीं जानते, वे उसे खोल नहीं सकते। अन्तर की गांठ खुले, ग्रंथि-भेद किए बिना बाह्य आकार में साधु बन सकता है, श्रावक बन सकता है, धार्मिक बन सकता है, परन्तु उपब्धि न तो साधुत्व की होती है, न श्रावकत्व की होती है। जिसकी भीतर की गांठ खुल जाती है, वह बहुत ही शांत, नम्र, ऋजु और निर्लोभ हो जाता है।
हमारी दृष्टि ठीक होनी चाहिए। जिसमें शम हो, मुमुक्षा का भाव हो, अनासक्ति का भाव हो, वह सम्यक्दृष्टि होता है। जिसमें ये नहीं, वह सम्यक्दृष्टि नहीं होता। अपने को अपने से तोलें कि मैं कहीं सम्यक्दृष्टि न होकर भी सम्यक्दृष्टि का दावा तो नहीं कर रहा हूं? अपने गज से अपने को नापें कि मेरे मन में शान्ति है या नहीं? सम्यक्दृष्टि हूं या नहीं?
५२ में धर्म के सूत्र
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