Book Title: Dharma ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 186
________________ जीवन में अहिंसा का रूप “एकोहं नास्ति मे कश्चन, न चाहमपि कस्यचित्। त्वदंध्रि शरणस्थस्य, मम दैन्ये न किंचन ॥ भगवन्! मैं अकेला हूं। मेरा कोई नहीं है और न मैं किसी का हूं। कठिन बात है अकेला होना, असहाय होना, अपूर्ण होना। अकेले में दीनता आ जाती है। केवल स्त्री या केवल पुरुष होता है तो बीमारी में दीनता आ जाती है। आदमी दूसरे को चाहता है, क्योंकि वह काम का सहयोग चाहता है। अकेले में रहना कठिन बहुत है। आचार्य अकेला होना चाहते हैं। वे कहते हैं-मेरे में हीनता नही है, क्योंकि मैंने आपके दोनों चरणों को मजबूती से पकड़ा है। अब दैन्य आ ही नहीं सकता। इस दुनिया में सहारे की जरूरत हर व्यक्ति को होती है। बिना आलम्बन के कोई आगे बढ़ नहीं सकता। आदमी क्या, प्रकृति का हर विकासशील प्राणी या वस्तु सहारा ढूंढ़ता है। लता सहारे से ऊपर उठती है। अंगूर की बेल के लिए उस पर ढांचा खड़ा करना पड़ता है। सहारे के आधार पर सुगमता से विकास किया जा सकता है। प्रत्येक को सहारे की आवश्यकता होती है। भक्त कहता है-भगवन् ! आपके सहारे से मुझे अकेलेपन जीवन में अहिंसा का रूप । १७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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