Book Title: Dharma ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 196
________________ अपने जीवन को विवशता है, पर अनर्थहिंसा अक्षम्य है। श्रावक का पहला कार्य है कि वह अनर्थहिंसा का त्याग करे। लोग प्रमादवश और भोग के लिए हिंसा कर लेते हैं। अर्थहिंसा का जहां प्रसंग आता है, वहां अनर्थहिंसा जितनी चिंता कर लेते हैं। सिद्धान्त का भी कहीं-कहीं दुरुपयोग हो जाता है, जिससे व्यवहार में भी कठिनाई आती है। आज समाज में नेतृत्व क्यों नहीं है? संगठन व अनुशासन क्यों नहीं है? कारण स्पष्ट है-समाज है कहां? हजार व्यक्तियों का होना ही समाज नहीं है। समाज वह होता है, जहां व्यक्तियों के हितों का चिन्तन हो, एक-दूसरे की कठिनाइयों को समझा जाता हो। पैर में कांटा चुभते ही चोटी में दर्द की सूचना मिल जाती है। सिर नीचे झुकाकर देखता है और हाथ को आदेश देता है उसे निकालने के लिए। परस्परता का सम्बन्ध समाज का लक्षण है। किसी एक को दुःख होता हो, वहां किसी को भी चिन्ता न हो, अपितु तत्त्ववादी चिन्तन यह हो कि करने वाला भोगेगा-वह समाज नहीं है, अस्थिसंघात मात्र है। जहां एकता की अनुभूति न हो, वह समाज कैसे बन सकता है? लोग सोचते हैं, हमारा संगठन बना रहे। एक-दूसरे की बात को माना जाए। आप सोचिए, वह दूसरे की बात तब मानेगा जब कि उसे पता लगेगा कि वह हमारे हित की बात सोचता है और कहता है। गुरुदेव हमारे हित के विषय में न सोचें, हमारे कष्ट में सहयोगी न हों तो हम उनकी आज्ञा क्यों मानेंगे? जब से हम लोगों को दीक्षित किया है, उसी समय से वे हमारे हितों की चिन्ता करते हैं। हमें ज्ञान दिया और प्रगति की दिशा दी। दुःख-सुख की चिन्ता की है। मुनिश्री डूंगरमलजी समाज के परिप्रेक्ष्य में अर्थहिंसा और अनर्थहिंसा म १९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 194 195 196 197 198 199 200