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जाता है। आप देखिए अमेरिका को। समृद्धि में वह बहुत ऊंचा है, किन्तु वहां आत्म-नियंत्रण की शक्ति ढीली हो गई है। वहां जितने पागल हैं, कहीं भी नहीं हैं। अपराधों की संख्या भी वहां सबसे अधिक है। वहां अपराध-निरोध का जितना बजट है, वह भारत के सारे बजट के समान है। जैसे-जैसे साधन-सम्पन्नता बढ़ती है, मनुष्य की आकांक्षा बढ़ती है, वैसे-वैसे अपने ऊपर नियंत्रण की शक्ति घटती जाती है, ज्ञान-तंतु ढीले होते जाते हैं। यदि आत्म-नियंत्रण की शक्ति को बढ़ाना है तो अपनी आत्मा पर अपने द्वारा नियंत्रण करना होगा।
दो रास्ते हैं-असंयम और संयम का, अव्रत और व्रत का। मार्ग का चुनाव स्वयं को करना है। यद्यपि आकर्षण असंयम की ओर ज्यादा है, यह बहुमत का मार्ग है। सहज बात है, झुकाव उधर अधिक होगा।
मैं इस पक्ष में नहीं हूं कि समाज का विकास न हो, किन्तु फिर भी यथार्थ पर आवरण नहीं डालना चाहिए। नग्न सत्य सामने आ रहा है कि जिन्होंने एकांगी असंयम का पोषण किया, वे भटक रहे हैं।
कोरी भोग-लालसा से मन की विच्छंखलता आ गयी है। भारतीय दर्शनों ने जीवन का एक पक्ष लिया था-संयमासंयमी। सब पूरा संयम नहीं रख सकते, सब ब्रह्मचारी नहीं बन सकते। सबके लिए पूरे संयम की बात व्यावहारिक भी नहीं है और संभव भी नहीं है। पूरा समाज असंयमी हो तो काम नहीं चल सकता। जीवन में कुछ असंयम है तो कुछ संयम भी होना चाहिए। तभी स्वस्थ समाज बन सकता है। जिनमें असंयम जितना ज्यादा हो, उसे उतना ही अधिक संयम करना चाहिए।
व्रतों की उपयोगिता में द६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
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