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भी चुभने पर नींद में बाधा डालती है। इतने बड़े शरीर में एक कांटा का क्या स्थान है! शरीर विजातीय को स्वीकार नहीं करता। आंख में छोटा-सा रजकण गिर जाता है तो बेचैनी होने लगती है। जब निकलता है, तब शांति मिलती है। शरीर सजातीय को स्वीकार करता है और विजातीय को निकाल देता है।
हमारे मन में अशांति क्यों? जब अशांति आए तो समझिए आत्मा में विजातीय आ गया है और आत्मा उसे निकालना चाहती है। शरीर टूटने पर बीमारी का पता लग जाता है। ये सूचना देने वाले लक्षण होते हैं।
प्राकृतिक चिकित्सक मानते हैं-बीमारी एक ही है। वह है पेट में विजातीय तत्त्वों का इकट्ठा होना। सिर का दर्द, पैर का दर्द, घुटने का दर्द, ये अलग रोग नहीं। शरीर के अवयव-भेद से रोग के नामान्तर हैं। बीमारी एक ही है, शरीर में विजातीय तत्त्व का संचय हो गया है। दोष भी एक है। कोई चोरी करता है, कोई झूठ बोलता है, कोई अप्रामाणिकता करता है। ये वास्तव में अलग-अलग बुराइयां नहीं हैं। बुराई एक ही है। वह है मोह, राग या द्वेष। राग और द्वेष विजातीय तत्त्व हैं। सारा इनका विस्तार है। राग-द्वेष आदमी में मतिभ्रम पैदा करते हैं। इनका नाम है शल्य। जितनी बुराइयां हैं, वे शल्य हैं। वे द्रव्य, क्षेत्र
और काल से प्रकट हो जाती हैं। सर्दी में जुकाम लगता है, गर्मी में तावड़ा लगता है, वर्षा में वर्षाकालीन बीमारी हो जाती है। ये कालकृत बीमारियां हैं। दक्षिण में पादशोथ की बीमारी होती है और राजस्थान में रातिंधा की बीमारी होती है। यह देशकृत बीमारियां हैं। कालकृत बीमारी, देशकृत बीमारी और वस्तुकृत बीमारी की तरह आन्तरिक बीमारी भी होती है। ७ धर्म के सूत्र
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