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क्या होता है, मुझे समझाओ।' बाबा ने कहा-'दो होते हैं, एक गुरु और दूसरा चेला। गुरु हुक्म देता है और चेला उसका हुक्म मानता है। लड़के ने दो क्षण सोचकर कहा-'चेला तो नहीं बनना चाहता, यदि गुरु बना लो तो मैं बन जाऊं।'
आचार्य भी यदि यह मांग करते कि मुझे मालिक बना दो तो उचित मांग थी। परन्तु आचार्य ने विपरीत ही मांग की। गहराई से देखने पर ज्ञात होगा कि आचार्य की मांग बुद्धिमत्तापूर्ण थी। कोई भी व्यक्ति मन का, स्वामी बनना चाहता है तो उसे भगवान का किंकर बनना ही होगा। उसे परमतत्त्व या मुक्तात्मा (जिसका पूर्ण विकास हो चुका है) का दास बनना ही होगा। जो पूर्ण समर्पित होता है, वही अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। जो अहं का भार ढोता रहे, वह कभी भगवान नहीं बन सकता, अपने हृदय में विराजमान प्रभु को नहीं पा सकता। भीतर बैठा भगवान आवरण से ढंका है, इसलिए दिखाई नहीं देता। आवरण को हटाकर देखो तब वह दिखाई देगा। किसी को निमंत्रण देना चाहते हो तो उसके लिए स्थान खाली करो। यदि हृदय बुराइयों से भरा रहेगा तो भगवान आएगा भी कैसे? उसके लिए बुराइयों को हटाकर स्थान खाली करो, फिर निमंत्रण दो।
नमि राजर्षि ने ऐसा ही किया था। जब वे दीक्षित हुए थे तब इन्द्र बोला-राजन्! आपने असमय में दीक्षा लेकर भूल की है। अभी आपके काम अधूरे पड़े हैं, उनको पूरा कर दीक्षित होना था। पहले प्रासाद बनाओ। वर्द्धमान गृह बनाओ, अट्टालिकाएं बनाओ, फिर बाद में दीक्षित होना।'
इसके उत्तर में राजर्षि नमि ने कहा-'जिसके मन में संदेह हो, वह घर बनाना चाहता है। जिसके स्थान न हो, वह घर
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धर्म के सूत्र
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