Book Title: Dharma Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Divine Knowledge Society

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Page 7
________________ (प्रकाश) उजाले की आराधना प्रकृति के किसी मंगल और मनोहारी प्रभात में, प्राची की और से गुलाब की पंखुडियां बिखेरती हुई, होठों पर स्निग्ध मुस्कान लिए उषा, भास्कर के उदय होने का संकेत दे रही है। सरिता का निर्मल नीर भगवान भास्कर के स्वागत हेतु कल- कल करने लगा है। किसी अदृश्य बन की वल्लरियों में छिपी कोकिला का मधुर कंठ नाद, कर्ण को पुलकित कर रहा है। आँखो से अदृश्य प्रफुल्लित पुष्प, उसके परिमल की सौरभ को चारों और बिखरते हुए हमारे मन को आल्हादित कर रहे हैं। मधुर अनुराग भरी श्रद्धा से हृदय भर आए, अंग अंग में चेतना झंकृत हो उठे, ऐसा ही कुछ स्पष्ट, अस्पष्ट अनुभव मुनि श्री चंद्रप्रभसागरजी के दर्शन, परिचय से हुआ। मुझे लगा, यह है कोई आदर्श अवधूत, भावना में मस्त, क्रान्तिकारी, मनसा-वाचा- कर्मणा मुनिराज । पाँच छः साल पहले का है यह प्रसंग, जब पालीताणा यानि जैन मंदिरों की प्रसिद्ध नगरी में हमने प्रवेश किया। सामान्य से दिखते हुए एक घर में प्रवेश के उपरांत ऊपर जाकर देखा तो कई साधु अपने नित्यक्रम में व्यस्त थे। हमारी नजरें दो मुनिराजों पर ठहरी, उन्हें मन ही मन नमन किया। उनमें से एक तो थे चन्द्रकान्तसागरजी जिनका थोडे समय पहले ही कालधर्म हुआ है, तथा दूसरे थे युवा व प्रतिभा सम्पन्न मुनि श्री चन्द्रप्रभसागरजी । प्रथम मुनिश्रीने प्यार पूर्वक हमारा सत्कार किया तथा दूसरे मुनिराज की ज्ञान गोष्टि के रंग ने हमें सहबोर कर दिया। साधुता के साथ साथ, स्नेह भीनी आत्मियता । इतना सद्भाव ? इनके दर्शन से हमारी आत्मा पुलकित हो उठी, औपचारिक परिचय के प्रथम पलों में ही सत्संग की और साधुता की गूढ़ता हमें स्पर्श कर गई। साधु मिलन की धन्य घडी हमें धन्य कर गयी । पिता-पु फिर तो कुछ समय बाद हमने जाना कि ये दोनों साधु, संसारी - पुत्र हैं, तथा साधु जगत में गुरूभाई। माया का कलुष त्याग कर दोनों ने त्याग का पंथ अपनाकर, संसार के सुख-साधनों से विरक्त Jain Education International 6 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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