Book Title: Dharma Jivan ka Utkarsh Author(s): Chitrabhanu Publisher: Divine Knowledge Society View full book textPage 5
________________ प्रकाशकीय. वर्तमान युग में मानव जीवन विक्षुब्ध बना है। भौतिक समृद्धि के इर्द गिर्द जीने वाला मानव सब कुछ होते हुए भी, स्वयं को कहीं न कहीं बौना महसूस करता है, कुछ कमी, खालीपन का एहसास करता है। विज्ञान का हवाईजहाज कितना ही ऊँचा क्यों न उडे परंतु उडने के लिए उसे पहले अध्यात्म की जमीन पर दोडना पडेगा व फिर सुरक्षित लौटने के लिए भी धर्म धरा पर उतरना ही पडेगा। पूरे विश्व के मानचित्र पर जैन दर्शन को स्थापित कर भगवान महावीर के सिद्धांतो को जनजन तक पहुंचाने वाले, परम पूज्य चित्रभानुजी के श्रीमुख से निकलने वाला हर शब्द किसी ग्रंथ से कम नहीं होता। वे कहते हैं - "क्या धर्म की जीवन में जरूरत है? क्या वह दिखाई देता है ? वैसे तो वृक्ष की जड़ें भी कहाँ दिखाई देती हैं, परंतु जरा सोचिए ! यदि जड़ें न हों तो वृक्ष हो सकता है? इसी तरह जीवन के मूल में यदि धर्म न हों तो जीवन कैसा होगा? वृक्ष की जीवन दाता उसकी जड़े हैं, वैसे ही मानव का जीवनदाता अहिंसा धर्म है। धर्म का मूल्य अनमोल है।" कितनी सहजता से जीवन के सार की व्याख्या कर दी ! यह धर्म हमारे जीवन में कैसे रोशनी ला सकता है, यह सार, इस ग्रंथ में इक्कीस गुणों को लक्ष्य में रखकर समझाया गया है। इन्सान एक के पश्चात एक गुण पर आरोहण करता चला जाए, तो उसके जीवन में न बुझने वाला, अवर्णनीय प्रकाश प्रगट हो सकता है। पूज्य श्री चित्रभानुजी ने आचार्य श्री देवेन्द्रसूरिजी कृत धर्मरत्न प्रकरण ग्रंथ के आधार पर इन उच्च भावनाओं की चर्चा की है। पूज्यश्री 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 208