________________ 12 भी अनुकंपनीय व दयनीय नहीं है। किसी भी अवस्था में रहा हुआ साधार्मिक भक्ति का ही पात्र है, इसलिये प्रत्येक अवस्था में उनके प्रति भक्ति भाव ही होना चाहिये। साधार्मिक की भक्ति उनके उद्धार के लिये ही नही है बल्कि संसार सागर से अपना उद्धार करने के लिये है। जब स्वयं इस ढंग से भक्ति करने को समर्थ न होवे तब साधार्मिक भक्ति के लिये चंदा आदि में अपनी धन सम्पत्ति का दान करे अथवा श्रीसंघ तत्रिमित्त चंदा करे इत्यादि। देवद्रव्य का उपयोग - जैन शासन की ऐसी मान्यता है कि सात क्षेत्रों में नीचे से लगाकर उपर के क्षेत्र एक-एक से अधिक पवित्र और उच्च कक्षा के है। अतः उच्च कक्षा के क्षेत्र का द्रव्य नीचली कक्षा के क्षेत्र में उपयुक्त नही किया जा सकता जरूरत पड़े तो नीचली कक्षा के क्षेत्र का द्रव्य उच्च कक्षा के क्षेत्र के उपयोग में ले सकते है। ऐसी शास्त्राज्ञा है जैसे-ज्ञानादि द्रव्य जिन. मंदिर तथा जिनमूर्ति के क्षेत्र के उपयोग में आ सकते है लेकिन जिन मंदिर तथा जिन मूर्ति के क्षेत्र का द्रव्य ज्ञान साधु साध्वी आदि के क्षेत्र में उपयोग करना उचित नही है। उसी तरह साधु आदि क्षेत्र का द्रव्य सम्यग् ज्ञान के उपयोग में ले सकते हैं लेकिन ज्ञान द्रव्य का उपयोग साधु आदि क्षेत्र में करना समुचित नही है तथा साधु साध्वी के क्षेत्र में श्रावक