Book Title: Devdravyadi Vyavastha Vichar
Author(s): Vichakshansuri
Publisher: Parshwanath Jain Shwetambar Mandir Trust

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Page 62
________________ 56 नक्की किया है वह तुरंत ही दे देना वाजवी है। जैन शासन में सर्वश्रेष्ठ कोटि का द्रव्य देवद्रव्य को पह सबस बड़ा पाप हा . . में लेना, खा जाना, नुकसान पहुँचाना तथा कोई खा जाता होवे, चोर लेता होवे हानि पहुँचाता होवे उसकी उपेक्षा करना यह सबसे बड़ा पाप है। हिंसा के पाप में जैसे तीर्थकर की हिंसा सबसे बड़ा पाप है उसी तरह देव द्रव्य का भक्षणादि करना इससे कोई बड़ा पाप नहीं है। सामान्य तोर पर यह कहा जा सकता है कि एकेन्द्रिय जीव की हिंसा से बेइंद्रिय जीव की हिंसा में ज्यादा पाप है उससे तेइन्द्रिय जीव की हिंसा में ज्यादा पाप है इस तरह चारिन्द्रिय को तथा पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा में उत्तरोत्तर ज्यादा ज्यादा पाप लगता है। पंचेन्द्रिय में भी छोटे और भोले मृगादि जीवों की हिंसा की अपेक्षा शेर आदि क्रूर प्राणियों की हिंसा में ज्यादा पाप लगता है उससे मनुष्य की हिंसा में अधिक पाप लगता है। मनुष्य में भी एक सामान्य मनुष्य की हिंसा की अपेक्षा उत्तरोत्तर शेठ श्रीमंत शक्ति सम्पन्न तथा राजा, महाराजा चक्रवर्ती, साधु, उपाध्याय, आचार्य, गणधर-तीर्थकर की हिंसा में अधिक अधिक पाप लगता है क्योंकि. एकेन्द्रिय से लगाकर तीर्थकर तक के

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