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अनुवादकीय मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ इसमें आप्तके तीन गुणोंका उल्लेख है और उन गुणोंकी प्राप्तिके लिए ही आप्तकी वन्दना की गई है। वे तीन गुण हैं मोक्षमार्गका नेतृत्व, मोहादिकर्मभूभृतोंका भेतृत्व और विश्वतत्त्वोंका ज्ञातृत्व । ये गुण आप्तमें जिस क्रमसे विकासको प्राप्त होते हैं वह है पहले मोहादिकर्मभूभृतों ( पर्वतों ) का भेदन होकर राग-द्वेषादि दोषोंका अभाव होना, दूसरे ज्ञानावरणादिका अभाव होकर विश्वतत्त्वोंका ज्ञाता होना और तीसरे आगमेशके रूपमें मोक्षमार्गका प्रणेता होना; जैसा कि स्वामीजीके समीचीनधर्मशास्त्र ( रत्नकरण्ड ) के निम्न वाक्यसे प्रकट है :
आप्तेनोत्सन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना।
भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ तब उक्त मंगल-स्तोत्रमें आप्तके विशेषणोंको क्रमभंग करके क्यों रखा गया है-तृतीय विशेषणको प्रथम स्थान क्यों दिया गया है ? यह एक प्रश्न पैदा होता है। इसके उत्तरमें इतना ही निवेदन है कि तत्त्वार्थसूत्रको 'मोक्षशास्त्र' भी कहते हैं, जगह-जगह 'मोक्षशास्त्र' नामसे उसका उल्लेख है। मोक्षशास्त्रका मंगलाचरण होनेसे ही इसमें 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' पदको प्रधानता दी गई है और यही बात विशेषणपदोंको क्रमभंग करके रखनेका कारण जान पड़ती है। तथा इस बातको स्पष्ट सूचित करती है कि यह मोक्षशास्त्रका मंगल-पद्य है। अस्तु । ___ इस अनुवादको न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलालजी जैन कोठियाने पूर्ण मनोयोगके साथ पढ़ जानेकी कृपा की है और कितना ही प्रूफरीडिंग आदि भी किया है। दो-एक जगह समुचित परामर्श भी दिया है। इस सब कृपाके लिए मैं उनका बहुत आभारी हूँ। साथ ही उन्होंने प्रस्तावना
१. इस मंगलाचरण-विषयका विशेष ऊहापोह न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलालजीकी प्रस्तावना तथा उन लेखोंमें किया गया है जो अनेकान्त वर्ष ५ कि० ६-७ व कि० ११-१२ में प्रकाशित हुए हैं।