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अनुवादकीय बात इस अष्टसहस्रीके विषषमें और भी लिखी है और यह यह कि 'हजार शास्त्रोंके सुननेसे क्या, एक अष्टसहस्रीको सुनना चाहिए, जिस अकेली. से ही स्वसमय और परसमय दोनोंका यथार्थ बोध होता है । यह मात्र अपने ग्रन्थकी प्रशंसामें लिखा हुआ वाक्य नहीं है, बल्कि सच्ची वस्तुस्थितिका द्योतक है। एकबार खुर्जाके सेठ पं० मेवारामजीने बतलाया था कि जर्मनीके एक विद्वान्ने उनसे कहा है कि 'जिसने अष्टसहस्री नहीं पढ़ी वह जैनी नहीं और जो अष्टसहस्त्रीको पढ़कर जैनी नहीं हुआ उसने अष्टसहस्रीको समझा नहीं।' कितने महत्त्वका यह वाक्य है
और एक अनुभवी विद्वान्के मुखसे निकला हुआ अष्टसहस्रीके गौरवको कितना अधिक ख्यापित करता है। सचमुच अष्टसहस्री ऐसी ही एक अपूर्व कृति है और वह देवागमके मर्मका उद्घाटन करती है। खेद है कि आज तक ऐसी महत्त्वकी कृतिका कोई हिन्दी-अनुवाद ग्रन्थ-गौरवके अनुरूप होकर प्रकाशित नहीं हो सका।
जिन्होंने स्तुति-विद्याका अध्ययन किया है वे जानते हैं कि समन्तमद्रको शब्दोंके ऊपर कितना अधिक एकाधिपत्य प्राप्त था। इलोकके एक चरणको उलटकर दूसरा चरण, पूर्वाधको उलटकर उत्तराध और सारे श्लोकको उलटकर दूसरा श्लोक बना देना तो उनके बाएँ हाथका खेल था। वे एक ही इलोकके अक्षरोंको ज्यों-का-त्यों स्थिर रखते हुए उन्हें कुछ मिलाकर या अलगसे रखकर दो अर्थोके वाचक दो श्लोक प्रस्तुत करते थे। श्रीवीर भगवान्की स्तुतिमें एक पद्यका उत्तरार्ध है 'श्रीमते वर्द्धमानाय नमो नमितविद्विषे ।' यही उत्तरार्ध अगले दो पद्योंका भी उत्तरार्ध है : परन्तु अर्थ तीनों पद्योंके उत्तरार्धीका एकदूसरेसे प्रायः भिन्न है। ये सब बातें रचनाके महत्त्व और उनकी कला पूर्णताको व्यक्त करती हैं। प्रस्तुत देवागम भी ऐसे कलापूर्ण महत्त्वसे अछूता नहीं, उसमें एक कारिकाको एक जगह रखनेपर एक अर्थ, दूसरी जगह कुछ कारिकाओंके मध्य रखनेपर दूसरा अर्थ और तीसरी जगह १. श्रातव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यः सहस्रसंख्यानैः ।
विज्ञायेत ययैव स्वसमय-परसमयसद्भावः ।।