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उपकृत हैं । यदि आकाश नहीं होता, यह शून्य नहीं होता तो कहीं भी रहने का स्थान नहीं होता । अमूर्त का मूर्त के प्रति उपकार है और मूर्त के द्वारा अमूर्त का परिणमन भी होता है, इसलिए यह बात मान्य नहीं हो सकती कि अमूर्त का मूर्त में कोई संबंध स्थापित नहीं हो सकता । अचेतन और चेतन में भी संबंध स्थापित होता है | चेतन का अचेतन के प्रति कुछ उपकार है तो अचेतन का चेतन के प्रति भी कुछ उपकार है । दोनों एक-दूसरे से उपकृत होते हैं । उपकार की बात को शायद आप स्वीकार कर लें, यह संभव है । किन्तु प्रश्न है – एकात्मकता का । यह एकात्मकता कैसे स्थापित होती है ? आत्मा और कर्म में, चेतना और पुद्गल में एकात्मकता कैसे स्थापित हो सकती है ? ये एक कैसे बन सकते हैं ? एकात्मकता दो विरोधी द्रव्यों में कभी नहीं होती । एकात्मकता नहीं होती, संबंध हो सकता है । तादात्म्य नहीं हो सकता, संबंध हो सकता है। कर्म के पुद्गल कभी चेतन नहीं बन सकते और चेतन कभी कर्म- पुद्गल नहीं बन सकता । उनमें एकात्म्य - भाव नहीं हो सकता । पुद्गल पुद्गल ही रहेंगे, कर्म कर्म ही रहेंगे। चेतना चेतना ही रहेगी। कर्म पुद्गलों के द्वारा चेतना के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होगा । और चेतना के द्वारा कर्म - पुद्गलों के स्वरूप में भी कोई परिवर्तन नहीं होगा। दोनों का संयोग हो सकता है। दोनों का संबंध हो सकता है। संयोगकृत या संबंधकृत परिवर्तन दोनों में होगा । चेतना कर्म - पुद्गलों की निमित्त बनेगी । और कर्मपुद्गल चेतना के निमित्त बनेंगे ।
परिवर्तन स्वभावगत होता है । कर्तृत्व उपादानगत होता है । चेतना का अपना उपादान है और कर्म - पुद्गलों का अपना उपादान है । उपादान में कोई परिवर्तन नहीं ला सकता । चेतना के उपादान में कर्म परिवर्तन नहीं ला सकते और कर्म के उपादान में, पौद्गलिक तत्त्व के उपादान में चेतना कोई परिवर्तन नहीं ला सकती । उपादान अपना-अपना रहेगा । केवल निमित्तों का परिवर्तन होगा । चेतना के उपादान जो हैं, उनको कुछ बदलने में कर्म निमित्त बन सकते हैं और कर्म-पुद्गलों के जो उपादान हैं, उनके कुछ परिवर्तन में चेतना निमित्त बन सकती है।
आत्मा के उपादान हैं -- ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति | आत्मा का मौलिक स्वरूप है— ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति । ये ही आत्मा के मौलिक उपादान हैं। ये कभी नहीं बदलते। कितने ही कर्म-परमाणु लग जाएं, इनमें परिवर्तन नहीं ला सकते । इनके अस्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता ।
पुद्गल के उपादान चार हैं-वर्ण, गंध, रस और स्पर्श । आत्मा का कितना ही निमित्त मिले, पुद्गल का वर्ण कभी समाप्त नहीं होगा, गंध समाप्त नहीं होगी, रस समाप्त नहीं होगा, स्पर्श समाप्त नहीं होगा । आत्मा इन में परिवर्तन नहीं ला सकती । आत्मा के निमित्त से इन उपादानों की तनिक भी क्षति नहीं हो सकती ।
११४ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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