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उसे वैसा करने नहीं देती । मन ललचाया कि इस आलीशान मकान में रहूं, इस पर अधिकार कर लूं, पर वैसा हो नहीं सका ।
दूसरा है— प्रवृति का विलयन । विलयन भी दबाने की प्रवृत्तियां ऐसी होती हैं, जो मन में उभरती हैं, किन्तु एक दूसरी सामने आ जाती है, तब वह छूट जाती है। एक प्रवृत्ति दूसरे में है, उसका विलयन हो जाता है ।
तीसरा है— प्रवृत्ति का मार्गान्तरीकरण । इसका अर्थ है - प्रवृत्ति का रास्ता बदल देना, दिशा बदल देना । फ्रायड की भाषा में मूल प्रवृत्ति है— कामशक्ति । फ्रायड के समूचे मनोविज्ञान में केन्द्रीय शक्ति है— कामशक्ति । उनका प्रतिपादन है कि इसका मार्गान्तरीकरण किया जा सकता है। एक व्यक्ति किसी सुंदर स्त्री को देखता है, उसके प्रति आकृष्ट होता है, किन्तु वह प्राप्त नहीं होती । इच्छा और अधिक तीव्र होती है, फिर भी वह प्राप्त नहीं होती । तब वह अपने मन की दिशा को बदल देता है । कोई कलाकार बन जाता है, कोई चित्रकार बन जाता है, कोई लेखक बन जाता है, कोई कवि बन जाता है । कोई कुछ और कोई कुछ बन जाता है । मानसिक विश्लेषण के अनुसार एक निष्कर्ष निकाला गया कि बहुत बड़े-बड़े कलाकार, बड़े-बड़े कवि जो हुए हैं वे सब मार्गान्तरीकरण के कारण हुए हैं ।
- प्रशस्त राग
चौथा है - प्रवृत्ति का उदात्तीकरण । कर्मशास्त्र की भाषा में इसे क्षयोपशम कह सकते हैं । यह क्षयोपशम की क्रिया है। जो मोह हैं, जो आसक्ति हैं, जो रागद्वेष है, उनके दोषों का परिशोधन करने की यह प्रक्रिया है, परिमार्जन करने की प्रक्रिया है । इसीलिए जैन आचार्यों ने दो शब्दों का प्रयोग कियाऔर अप्रशस्त राग । राग अच्छा नहीं है, बुरा है । किन्तु धर्म के प्रति राग, गुरु के प्रति राग, इष्टदेव के प्रति राग - यह सब प्रशस्त राग है। जैन आगमों में एक बहु-व्यवहृत शब्द है— 'धम्माणुराग रते' – धर्मानुरागरक्त-धर्म के अनुराग से रक्त। यह सब प्रशस्त राग है। इसका तात्पर्य है कि राग के जो दोष थे, जो तीव्रता थी, उसका परिशोधन कर दिया । आसक्ति की मात्रा को कम कर दिया । मात्रा इतनी कम कर दी कि वह राग-दोषमुक्त नहीं रहा। राग का उदात्तीकरण हो गया । यह उदात्तीकरण की प्रक्रिया क्षयोपशम की प्रक्रिया है, जिसमें कर्मों के कुछ दोषों को सर्वथा क्षीण कर दिया गया और कुछ दोषों का उपशमन कर दिया गया। इससे एक प्रकार की शुद्धता जैसी स्थिति निर्मित हो गयी । यह उदात्तीकरण है, राग का संशोधन है, आसक्ति का संशोधन है ।
दमन की बात साधना की बात नहीं है । इच्छाओं का दमन ही करना हो तो फिर साधना की बात व्यर्थ है । उसके लिए साधना करने की आवश्यकता नहीं है | दमन हर किसी व्यक्ति को करना ही पड़ता है । कोई भी व्यक्ति अपनी सारी
१३० : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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प्रवृत्ति है। कुछ प्रवृत्ति की बात विलीन हो जाती
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