Book Title: Chetna ka Urdhvarohana
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 176
________________ जानना सम्यग्दर्शन माना जाता है | श्रावक के व्रतों का स्वीकार कर लिया, यह हो गया पांचवां गुणस्थान अर्थात् श्रावकत्व, देशविरति की प्राप्ति । पांच महाव्रतों को स्वीकार कर लिया, छठा गुणस्थान आ गया, सर्व विरति की अवस्था प्राप्त हो गयी । यह है व्यवहार की भाषा का स्वीकार । किंतु जब हम कर्मशास्त्रीय भाषा में सोचते हैं, निश्चय की भाषा में सोचते हैं, तब हमें कहना होगा कि आवेग चतुष्टय ( क्रोध, मान, माया, लोभ) की तीव्रतम अवस्था ( अनंतानुबंधी) का विलय होने पर सम्यग्दर्शन उपलब्ध होता है । जिस व्यक्ति में आवेग की यह तीव्रतम अवस्था क्षीण - उपशांत नहीं होती उसे सम्यग्दर्शन उपलब्ध नहीं होता, फिर चाहे वह कितनी ही बार नौ पदार्थों को रट जाये और उनको कंठस्थ कर उच्चारण करता रहे । जिस व्यक्ति में आवेग की दूसरी अवस्था ( अप्रत्याख्यानावरण) का उपशम या क्षय नहीं होता, तब तक यथार्थ में व्यक्ति देश - विरति श्रावक नहीं बन सकता, चाहे फिर वह कितनी ही बार त्याग को दोहराता रहे। जिस व्यक्ति में आवेग की तीसरी अवस्था ( प्रत्याख्यानावरण) का उपशम या क्षय नहीं होता, तब तक वह मुनि-साधक नहीं बन सकता, फिर चाहे वह कितनी ही बार दीक्षित क्यों न हो जाये। जिस व्यक्ति में आवेग की चौथी अवस्था ( संज्वलन ) का क्षय नहीं होता, तब तक व्यक्ति वीतराग नहीं बन सकता, वह चारित्र की उत्कृष्ट कोटि — यथाख्यात को नहीं पा सकता । - हम अंतरंग और बहिरंग — दोनों ओर ध्यान दें । केवल बहिरंग साधना पर्याप्त नहीं है । जब तक कषाय का विलय नहीं होगा, अंतरंग का स्पर्श नहीं होगा, तब तक आध्यात्मिक चेतना उपलब्ध नहीं होगी । बहिरंग साधना से व्यवहार की पूर्ति तो हो सकेगी, किंतु आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो पायेगा । कर्मशास्त्र के रहस्यों को समझे बिना हम आध्यात्मिक विकास के सूक्ष्म रहस्यों को नहीं समझ सकते। उन सूक्ष्म रहस्यों को समझे बिना आध्यात्मिक चेतना के अंतरंग पथ को नहीं पकड़ सकते । इसलिए हमें कर्मशास्त्र की गहराइयों में उतरकर उसके रहस्यों को पकड़ना होगा । वीतरागता की ओर बढ़ने के लिए जो एक बाधा बनी रहती है, वह है आकांक्षा । व्यक्ति कभी पूजा का अर्थी हो जाता है, कभी उसकी इच्छा प्रिय वस्तुओं को भोगने की ओर अग्रसर होती है, कभी वह अनुकूलता चाहता है, मनोज्ञता चाहता है, अमनोज्ञता से बचना चाहता है । यह सब आशंसा से उत्पन्न होता है । जो व्यक्ति 'जहावाई तहाकारी' नहीं होता, जैसा कहता है, वैसा करने वाला नहीं होता, कहता कुछ है और करता कुछ है, यह स्थिति जब तक समाप्त नहीं होती, तब तक अध्यात्म की उच्च भूमिका प्राप्त नहीं होती । जो कह दिया, वैसा ही करना है, यह चेतना पूर्णतः जागृत नहीं होती, तब कभी - कभी चलते १६२ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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