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दसवां सूत्र है-स्वाध्याय । स्वाध्याय का अर्थ है-पढ़ना, ज्ञान प्राप्त करना । वह ज्ञान प्राप्त करो जो तुम्हारी आत्मा को जागृत करे। केवल पुस्तकीय ज्ञान पर्याप्त नहीं है । कर्म-बंधन से मुक्ति दिलाने वाला ज्ञान प्राप्त करो। ऐसा ज्ञान प्राप्त करो जो मूर्छा के बंधनों से छुटकारा दिला सके। ___ग्यारहवां सूत्र है-ध्यान । नहीं पढ़ना है तो अपने-आप में लीन हो जाओ। ध्यान लीन होने की प्रक्रिया है। ध्यान के माध्यम से तुम सत्य तक पहुंच जाओगे, सत्य को पा लोगे, सत्य का साक्षात् कर लोगे।
बारहवां सूत्र है-व्युत्सर्ग । इसका अर्थ है-छोड़ना। मैंने कहा भी था कि महावीर की साधना का सूत्र है-अयोग की साधना। सब संबंधों को तोड़ दो। सब विसर्जित कर दो। जो कुछ हो उसका विसर्जन कर दो। शरीर का व्युत्सर्ग और कर्म का व्युत्सर्ग।
यह सारी तपस्या की प्रक्रिया है। इसके बारह सूत्र हैं।
कर्म-मुक्ति की प्रक्रिया के दो तत्त्व हैं-एक है संवर और दूसरा है तपस्या पा निर्जरा।
महर्षि पंतजलि ने बतलाया कि क्रियायोग के द्वारा क्लेशों को कम किया जा सकता है। तपस्या, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान-यह क्रियायोग है।
भगवान महावीर की भाषा में संवर और निर्जरा के द्वारा आस्रवों को क्षीण किया जा सकता है । इस प्रक्रिया के द्वारा कर्म-मुक्ति घटित होती है और व्यक्ति सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाता है। ____ हम कर्म-बंधन की प्रक्रिया से चले थे और कर्म-मुक्ति की प्रक्रिया तक पहुंच गये । बंधन के क्षण से मुक्ति के क्षण तक आ गये।
__ अब हम कर्म संबंधी दो-चार बिन्दुओं पर और ध्यान दें, जो सारी चर्चा का निष्कर्ष होगा।
यह प्रश्न होता है कि कर्म का अस्तित्व है या नहीं? यह कहा जाता है कि संसार में बहुत विविधता है और इस विविधता का एक हेतु कर्म है। किन्तु विविधता का हेतु केवल कर्म ही नहीं है, और भी अनेक कारण हैं। चैतन्य जगत में विविधता है । चैतन्य जगत् में घटित होने वाली विविध घटनाओं का एक बड़ा निमित्त है कर्म । यदि कर्म परमाणु नहीं होते, कर्म का बंध नहीं होता तो ये विविधताएं नहीं होतीं। सब कुछ समान ही होता। सब आत्मा के स्वभाव में होते । सब एक-जैसे होते, कोई परिवर्तन नहीं होता, कोई विविधता नहीं होती। विभक्ति होना, विभाजन होना-यह कर्म के अस्तित्व का बहुत बड़ा प्रमाण है।
कर्म के अस्तित्व का दूसरा कारण है-मनुष्य के रागात्मक और द्वेषात्मक परिणाम ! यदि मनुष्य में राग और द्वेष नहीं होता तो कर्म को स्वीकार करने का कोई कारण नहीं होता। रागात्मक और द्वेषात्मक परिणाम इसलिए होते हैं कि
१९४ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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