Book Title: Chetna ka Urdhvarohana
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

Previous | Next

Page 207
________________ मार्गान्तरीकरण कर दो। जो इंद्रियां केवल बाहर की ओर दौड़ रही हैं, जो मन बाहर की ओर भटक रहा है, उन इंद्रियों को भीतर ले आओ, मन को भीतर ले आओ। यह अंतप्रवेश की प्रक्रिया है। हम कहते हैं-शरीर को देखो। इसका तात्पर्य है कि शरीर के भीतर जो प्रकंपन हो रहे हैं उन्हें देखो। इंद्रियों की यह आदत बन गयी है कि वे बाहर ही बाहर देख रही हैं, देखना चाहती हैं। इस आदत को बदलो। एक नयी आदत का निर्माण करो। वह आदत भीतर-ही-भीतर देखे। बाहर देखने में जो आनंद आता है उससे कई गुना आनंद आता है भीतर देखने में । बाहर देखने के पश्चात् आदमी को बहुत बार अनुताप भी होता है। पर मुझे नहीं लगता कि भीतर देखने वाले को भी अनुताप हुआ हो। शरीर की प्रेक्षा करने वालों से मैंने कई बार पूछा कि शरीर की प्रेक्षा करने में तुम्हें व्यर्थता का अनुभव तो नहीं हो रहा है ? किसी ने नहीं कहा कि हमें व्यर्थता का अनुभव हो रहा है, अनुताप हो रहा है। यह प्रेक्षा की प्रक्रिया, दर्शन की प्रक्रिया, देखने की प्रक्रिया बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। जो आस्रव हैं, कर्म-आगमन के द्वार हैं, वे ही संवर के द्वार हैं । दर्शन की प्रक्रिया के द्वारा हम उन द्वारों को बंद कर देते हैं। देहासक्ति को तोड़ना, शरीर को साधना और इंद्रियों के रास्ते को बदलनाये प्राथमिक द्वार हैं । साधक के लिए प्रवेश-द्वार हैं। इन्हें बहिरंग भी कहा गया है। जब तक हम प्रवेश नहीं करेंगे तब तक भीतर में रहने का प्रश्न ही नहीं होगा। सातवां सूत्र है-प्रायश्चित्त का। मन में विचार आते रहते हैं। मन में विचार आया, तत्काल उसको साफ कर दो। यदि तत्काल साफ नहीं किया, जागरूक नहीं रहे, उस विचार को पाल लिया तो गांठ बन जाएगी, ग्रंथिपात हो जायेगा। विचार आज का हो, किंतु उसका परिणाम हज़ार वर्ष बाद भी भोगना पड़ सकता है । न जाने कब उसे भुगतना पड़े। यदि उसी समय उसका प्रक्षालन कर दिया, उसे धो डाला तब तो जो कर्म परमाणु आए थे, वे टूट जायेंगे। वे गांठ नहीं बन पायेंगे। अगर सावधानी नहीं रही, जागरूकता नहीं रही, गांठ पड़ गयी तो निश्चित ही उसका परिणाम भुगतना पड़ेगा। इसीलिए प्रायश्चित्त का सूत्र दिया गया। प्रायश्चित्त करते रहो ताकि गांठ न पड़ने पाए। आठवां सूत्र है-विनय। मन में अहं नहीं होना चाहिए। अहंकार और ममकार, ये दो बाधाएं हैं। साधना में कोई अहंकार नहीं होना चाहिए । साधक अत्यंत विनम्र और मृदु रहे। नौवां सूत्र है--वैयावृत्य । इसका अर्थ है-साधना करने वालों का सहयोग करना। केवल स्वार्थी मत बनो। जो साधना करना चाहते हैं, उसके लिए, अपने से जो कुछ बन पड़े, करो। यह वैयावृत्य है, सेवा है। कर्मवाद के अंकुश : १६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214