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मनुष्य कर्म से बंधा है । बंधन चैतन्य का मूल स्वभाव नहीं है। यह स्वभाव का अतिक्रमण है। स्वभाव से विरोधी कार्य जो हम कर रहे हैं उनका प्रेरक तत्त्व है कर्म।
तीसरा कारण है-चंचलता। यदि कर्म नहीं होते तो चंचलता नहीं होती। सक्रियता तो होती, चंचलता नहीं होती। सक्रियता पदार्थ का लक्षण है । कोई भी पदार्थ निष्क्रिय नहीं होता। सब सक्रिय होते हैं। सक्रियता पदार्थ का लक्षण है। चंचलता पदार्थ का लक्षण नहीं है।
हमने अपने कर्म-अणुओं द्वारा अपने पर एक शरीर का बंधन डाल रखा है। एक सूक्ष्म शरीर का और एक स्थूल शरीर का। उसी शरीर के द्वारा यह सारी चंचलता हो रही है शरीर है इसलिए मन की चंचलता है। शरीर है इसलिए वाणी की चंचलता है। ये सब मूलतः शरीर की चंचलता के कारण चंचल हैं । कर्म के कारण ये शरीर और शरीर के कारण यह चंचलता। इसलिए यह स्वीकार करने में बहुत सुविधा है कि कर्म है।
चौथी बात है-पुद्गल और जीव का परस्पर प्रभाव । एक-दूसरे को प्रभावित करता है । जीव पुद्गल को प्रभावित करता है और पुद्गल जीव को प्रभावित करता है । पुद्गल मन को प्रभावित करता है, शरीर को प्रभावित करता है। जीव के राग-द्वेषात्मक परिणाम और पुद्गल में ऐसा गठबंधन है, ऐसी संधि है कि जीव के राग-द्वेषात्मक परिणाम पुद्गल को सहयोग देते हैं और पुद्गल राग-द्वेषात्मक परिणाम को सहयोग देता है । दोनों एक-दूसरे से संबद्ध हैं। दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। चेतना का, आत्मा का इस प्रकार दूसरे से प्रभावित होना इस बात का साक्षी है कि कर्म का अस्तित्व है।
हम पहले यह चर्चा कर चुके हैं कि कर्म को सार्वभौम सत्ता नहीं है, सर्व शक्ति-सम्पन्न सत्ता नहीं है। यह बहुत ही नियंत्रित तत्त्व है। हम साधना के क्षेत्र में या व्यवहार के क्षेत्र में भी यह भूल कर बैठते हैं और कह देते हैं कि हमसे साधना हो नहीं सकती, क्योंकि कर्म का कोई ऐसा ही योग है । व्यवहार के क्षेत्र में भी हम कह देते हैं---मैं यह काम नहीं कर सकता, क्योंकि कर्म का कोई ऐसा ही योग है। हमने बस मान लिया कि कर्म ही सब कुछ है । कर्म ही सब कुछ नहीं है। वह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है कि वह सब कुछ हो जाये । हमने भूल-वश उसे सब कुछ होने का स्थान दे दिया।
हम जब साधना की दृष्टि से कर्म-शास्त्र पर विचार करते हैं तब हमें इन दो-चार बातों को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। ____ पहली बात-कर्म पर भी अंकुश है । वह कोई निरंकुश सत्ता नहीं है । उस पर सबसे पहला अंकुश यह है कि आत्मा के चैतन्य स्वभाव का स्वतंत्र अस्तित्व है। यदि आत्मा के चैतन्य स्वभाव का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता तो फिर कर्म
कर्मवाद के अंकुश : १६५
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