Book Title: Chetna ka Urdhvarohana
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 179
________________ क्षयोपशमन का अर्थ है-कुछ दबाते हुए, कुछ क्षीण करते हुए। कुछ दोषों का उपशमन हुआ और कुछ क्षीण हुए। इसमें उपशमन और क्षय, साथ-साथ चलते हैं। क्षयीकरण __यह तीसरी पद्धति है। पूर्ण क्षीण कर देना, समाप्त कर देना, विलय कर देना। इसमें उपशमन नहीं होता। जो भी आया, उसे नष्ट कर दिया। यह नष्ट करते हुए चलने की पद्धति है। यह है सर्वथा आगे बढ़ जाने की पद्धति । ऐसा करने वाला व्यक्ति पूर्णतः आगे ही बढ़ता चला जाता है। उसकी आध्यात्मिक चेतना की भूमिका प्रशस्त होती चली जाती है। आवेगों का उपशमन होता है, आवेगों का क्षयोपशमन होता है और आवेगों का क्षयीकरण होता है। ___मानस विज्ञान की दृष्टि से भी यह सम्मत तथ्य है कि आवेगों पर नियंत्रण होना चाहिए । अनियंत्रित आवेग व्यक्ति को ही नहीं, समाज को भी हानि पहुंचाते हैं। क्रोध उत्पन्न होता है। उसे रोकना ज़रूरी है। किंतु अंतर इतना ही आता है कि उसे कैसे रोकें ? यहां कर्मशास्त्र का अध्यात्मशास्त्रीय पक्ष आ जाता है। यह उसका साधना पक्ष है। अध्यात्मशास्त्र और कर्मशास्त्र जुड़े हुए हैं। इन्हें कभी अलग नहीं किया जा सकता। हमने यह जान लिया कि यह संसार का चक्र आवेग के द्वारा चल रहा है। आवेगों के द्वारा मानसिक अशांति का चक्र चल रहा है। आवेगों के द्वारा बहुत सारी बीमारियां उत्पन्न होती हैं। परंतु एक प्रश्न आता है कि हम इन आवेगों से कैसे बचें ? कर्मशास्त्र इस प्रश्न का समाधान नहीं देता। क्या घटित होता है, यह कर्मशास्त्र से उपलब्ध हो गया। अब उन आवेगों के उपशमन के लिए, उनके क्षयीकरण के लिए हमें क्या करना चाहिए—यह बोध अध्यात्मशास्त्र से प्राप्त होगा । इस बिंदु पर कर्मशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र मिल जाते हैं। मोह का विलय कैसे करें, आवेगों का विलय कैसे करें, इसकी चर्चा हम अध्यात्मशास्त्रीय बिंदु के द्वारा करेंगे। - आवेग : उप-आवेग : १६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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