Book Title: Chetna ka Urdhvarohana
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 185
________________ - कर्म का बंधन न हो, इसमें हम जागरूक रहें, अप्रमत्त रहें । यह भी साधना की एक प्रक्रिया है । साधना की एक प्रक्रिया यह भी है कि जो विपाक आने वाले हैं, उनके प्रति हम पहले से ही जागरूक हो जाएं। उन विपाकों को हम बदल दें । अथवा हम विपाकों को आने ही न दें। कर्मों को हमने बांध दिया । कर्म बंध गए । हमारे ही अज्ञानवश प्रमादवश, हमारी ही भूलों के कारण वे कर्म आकर चिपक गए । वे परिणाम देने वाले हैं। उनका विपाक - काल है । हम जागरूक हो जाएं। हम जाग जाएं। हमारी प्रमाद की नींद टूट जाये । हमारी चेतना की कुछ रश्मियां आलोकित हो जायें । यह असंभव नहीं है, बहुत संभव है । असाध्य कार्य नहीं है, साध्य कार्य है। हम उन कर्मों को बीच में ही बदल दें, उनकी शक्ति में ऐसा परिवर्तन ला दें कि उनका विपाक न हो सके। यह बहुत ही महत्त्व की बात है । इस पर हमारा ध्यान केन्द्रित होना चाहिए। विपाक होता है कारणों से । निमित्तों के बिना विपाक नहीं हो सकता । । लिए पांच शर्तें हैं विपाक के बातें पूरी होती हैं, तब कर्म का प्रज्ञापना सूत्र में इसका सुंदर विवेचन प्राप्त है द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव । जब ये पांचों विपाक हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता । इसी आधार पर कर्म की चार प्रकृतियां मानी गयी हैं— क्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी, भावविपाकी और भवविपाकी । यदि इन चारों को हम ठीक से समझ लें और कर्मशास्त्र के रहस्यों गहराई में जाकर पकड़ लें तो बहुत कुछ परिवर्तन ला सकते हैं । यदि कर्म के हेतुओं में और बंधे हुए कर्मों में कोई भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता तो साधना का कोई अर्थ नहीं हो सकता, वह अर्थशून्य हो जाती है । फिर हमारे लिए साधना का प्रयोजन ही क्या ? हम क्यों इतना पुरुषार्थं करें ? क्यों प्रेक्षा करें ? क्यों आंखें मूंदकर घंटों तक ध्यान करें ? यदि हम कुछ बदल न सकें तो ये सारे प्रयत्न व्यर्थ हैं, शून्य हैं । किंतु ऐसा नहीं है । साधना के द्वारा हम बदल सकते हैं। यह हमारी बहुत बड़ी क्षमता है कि हम साधना के माध्यम से उन विपाकों में परिवर्तन ला सकते हैं । किंतु यह तभी संभव हो सकता है, जब हम कर्मशास्त्र की गहराई में जाकर कर्मों की प्रकृतियों और स्वभावों को ठीक-ठीक समझ लें और यह उपाय भी जान लें कि उनमें कैसे परिवर्तन लाया जा सकता है ? वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियां I पुद्गल का एक परिणाम है - वेदनीय कर्म | हैं - सात वेदनीय और असात वेदनीय । सुख का भी वेदन होता है और दुःख का भी वेदन होता है । प्रीत्यात्मक अनुभूति भी होती है और अप्रीत्यात्मक अनुभूति भी होती है । असात वेदनीय का उदय क्यों होता है ? उसके उदय के अनेक कारण हैं। एक कारण है - पुद्गल । पुद्गल का ऐसा कोई स्पर्श हुआ, कोई आवेग - चिकित्सा : १७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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