Book Title: Chetna ka Urdhvarohana
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 192
________________ जो आकर जड़ गया है। उसे काटा जा सकता है। उसे काटने के अनेक उपाय हैं. अनेक साधन हैं। उन सब साधनों में महत्त्वपूर्ण साधन है-चैतन्य का अनुभव, संवर, शुद्ध उपयोग। जब हम चैतन्य के अनुभव में होते हैं तब संवर की स्थिति होती है, हमारा संवर होता है। जब चैतन्य का अनुभव होता है तब कोई आवेग हो नहीं सकता। आवेग तब होता है जब हमारा चैतन्य का अनुभव लुप्त हो जाता है । जव चैतन्य पर मूर्छा छा जाती है, जब चैतन्य पर ढक्कन आ जाता है, तब आवेग को उभरने का अवसर मिलता है। जब चैतन्य की अनुभूति होती है तब आवेग आ ही नहीं सकता। ___हमारी साधना का सूत्र है-चैतन्य का सतत अनुभव । जब चैतन्य के अनुभव की स्थिति निरंतर बनी रहती है तब हमारा संवर पुष्ट होता रहता है । संवर के आते ही द्वार बंद हो जायेगा। चैतन्य का अनुभव होते ही सब द्वार बंद हो जायेंगे। कोई द्वार खुला नहीं रहेगा। सब द्वार बंद, सब खिड़कियां बंद। उस समय न आवेग आ सकता है, न उत्तेजना आ सकती है और न वासना आ सकती है। कुछ भी नहीं आ सकता। सब विच्छिन्न हो जाते हैं। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा कि साधना का चरम शिखर है-'अयोग'। वहां सब योग समाप्त हो जाते हैं। यह 'अयोग' शब्द बड़ा जटिल है। सभी आचार्यों ने शब्द चुना—'योग' । उन्होंने कहा—योग की साधना करो। भगवान् महावीर ने कहा- 'नहीं, अयोग की साधना करो। योगों को समाप्त करो, संबंधों को तोड़ो।' इससे क्या होगा ? इससे सब कुछ घटित हो जायेगा। क्योंकि पाना कुछ भी नहीं है । बाहर से लेना कुछ भी नहीं है। हम सब अपने आप में परिपूर्ण हैं। कुछ भी उपादेय नहीं है। बाहर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो अपने लिए हितकर हो । बाहर जितनी वस्तुएं हैं उन्हें छोड़ना ही हितकर है । सब संबंधों को तोड़ना, अयोग करना ही हितकर है । अंतिम शिखर है-अयोग। जब सम्यक्त्व का संवर हो जाता है, व्रत का संवर हो जाता है, अप्रमाद का संवर हो जाता है, अकषाय का संवर हो जाता है, तब अंतिम शिखर आता है-अयोग संवर । जहां हमने सारे संबंध काट डाले वहां अयोग हो जाता है । वहां पूर्ण विकास हो जाता है, परमात्मा की पूर्ण स्थिति उपलब्ध हो जाती है। अयोग संवर के घटित होते ही, जो पौद्गलिक संबंध आत्मा के साथ हैं, वे सब एक साथ विच्छिन्न हो जाते हैं। जब चैतन्य का अनुभव प्रारंभ होता है तब योग टूटने शुरू होते हैं । मूढ़ता का गहन वलय टूटने लग जाता है। कर्मों के जितने संबंध हमने स्थापित किये हैं वे सारे के सारे चैतन्य की विस्मति के कारण हुए हैं। जब-जब चैतन्य की विस्मति होती है तब-तब कोई न कोई पुद्गल हमारे साथ जुड़ जाता है और अपना प्रभाव जमा लेता है । हम जब अपने चैतन्य के अनुभव में होते हैं, जब हम अपना होश संभालते हैं, तब उन पुद्गलों का प्रभाव मंद होने लग जाता है, वह लुप्त होने लग जाता है। पुनल धीरे-धीरे १७८ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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