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हैं । प्राचीन आयुर्वेद के ग्रंथों में इन विषयों की विशद जानकारी प्राप्त होती है। किंतु वर्तमान में जो मानसशास्त्रीय खोजें हुई हैं, उनसे इस विषय पर चामत्कारिक प्रकाश पड़ता है। मनस्-चिकित्साशास्त्र कुछ अद्भुत बातें प्रस्तुत करता है। हम मानते हैं कि बीमारियां शरीर में पैदा होती हैं। डॉक्टर कहते हैं कि कीटाणुओं के द्वारा बीमारियां उत्पन्न होती हैं। किंतु मनस्-चिकित्साशास्त्र कुछ और ही कहता है। उसका कहना है कि सत्तर-अस्सी प्रतिशत बीमारियां मानसिक आवेगों के कारण होती हैं। क्रोध, ईर्ष्या, भय, लालच-ये बीमारी के उत्पादक हैं। बहुत सारी बीमारियां ग्रंथियों के स्राव के कारण बढ़ती हैं, अवांछनीय रासायनिक प्रक्रिया होती है । इस दृष्टि से भी ये आवेग घातक हैं। ये आवेग कर्म की परंपरा को तो आगे बढ़ाते ही हैं, चितु शरीर के लिए भी लाभदायक नहीं हैं।
हमें कर्मशास्त्र को केवल जानना ही नहीं है, उसके रहस्यों को जानकर उनसे लाभ उठाना है। वह है आवेग का नियंत्रण। आवेगों पर हमारा नियंत्रण होना चाहिए। कर्मशास्त्र की भाषा में आवेग-नियंत्रण की तीन पद्धतियां हैं-उपशमन, क्षयोपशमन और क्षयीकरण।
उपशमन ___ मनोविज्ञान की भाषा में इसे दमन की पद्धति कहा गया है। एक व्यक्ति आवेगों का दमन करता चला जाता है। मन में जो भी इच्छा उत्पन्न हई, जो भी आवेग आया, उसे रोक लिया, शान्त कर दिया, दबा दिया। वह दबाता चला जाता है और दमन करते-करते अध्यात्म-विकास की ग्यारहवीं भूमिका तक चला जा सकता है। यह भी ऊंची भूमिका है। इसका नाम है-उपशांत मोह। इसे ग्यारहवां गुणस्थान कहा जाता है। इस भूमिका में मोह उपशांत हो जाता है। इतना उपशांत कि व्यक्ति वीतराग हो जाता है। यह दमन का रास्ता है, विलय का नहीं। इसलिए कुछ ही समय पश्चात् ऐसी स्थिति बनती है कि दबा हुआ कषाय उभरता है और उससे ऐसा झटका लगता है कि ग्यारहवीं भूमिका में गया हुआ साधक नीचे लुढ़क जाता है और फिर वह उन्हीं आवेगों से आक्रांत हो जाता है।
दमन की पद्धति को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, किंतु यह व्यक्ति को लक्ष्य तक नहीं पहुंचा पाती।
क्षयोपशमन
यह दूसरी पद्धति है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे उदात्तीकरण की पद्धति कहा गया है। इसे मास्तरीकरण भी कहा जाता है। इसका अर्थ है-रास्ता बदल देना, उदात्त कर देना, परिष्कृत कर देना, परिमार्जन कर देना।
१६४ : चेतना का ऊर्वारोहण
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