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अभिव्यक्ति भी शक्ति के बिना नहीं हो सकती । शक्ति का माध्यम सबके साथ जुड़ा हुआ है। सभी अभिव्यक्तियों का माध्यम है शरीर । इसीलिए मन से शरीर प्रभावित होता है और शरीर से मन प्रभावित होता है । चैतन्य का विकास हो गया, किन्तु इन्द्रियां ठीक नहीं हैं, इन्द्रियों का जो आकार बना है, इन्द्रियों के जो गोलक बने हैं, वे ठीक नहीं हैं, स्वस्थ नहीं है, तो चैतन्य की शक्ति काम नहीं आयेगी, उसका उपयोग नहीं हो पायेगा, जैसे-तैसे वह अनुपयोगी ही बनी रहेगी । आनन्द का विकास है, किन्तु अभिव्यक्ति का माध्यम ठीक नहीं है तो वह कार्यकर नहीं होगा । शरीर भी ठीक होना चाहिए, उसके अनुरूप होना चाहिए और इन्द्रियों के गोलक स्वस्थ और सक्षम होने चाहिए तभी उनमें शक्तियां अभिव्यक्त हो सकती हैं, अन्यथा नहीं। बिजली का प्रवाह निरंतर गतिशील है । यदि बल्ब ठीक है तो वह अभिव्यक्त हो जायेगी, प्रकाश फैल जायेगा । यदि बल्ब ठीक नहीं है तो बिजली रहते हुए भी उसमें अभिव्यक्त नहीं होगी, प्रकाश नहीं होगा, अंधेरा नहीं मिटेगा । माध्यम ठीक होना चाहिए तभी अभिव्यक्ति हो सकती है ।
हम यह विस्मृत न करें कि शरीर मन को प्रभावित करता है और मन शरीर को प्रभावित करता है । शरीर भी प्रभाव का निमित्त बनता है और मन भी प्रभाव का निमित्त बनता है । किन्तु निमित्त का मूलस्रोत है - कर्म ।
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कुछ मानते हैं कि परिस्थिति के कारण ऐसा होता है । किन्तु उसमें हमें अपवाद भी मिलते हैं। कई बार ऐसा अनुभव होता है कि वातावरण शान्त है, मन शान्त है, कहीं कुछ गड़बड़ नहीं है, फिर भी मन में अचानक उदासी छा जाती है, मन चिता से भर जाता है, वह शोकाकुल हो जाता है । कभी-कभी अचानक मन हर्ष से विभोर हो जाता है, मुसकराहट फूट पड़ती है । यह सब सकारण हो तो बात समझ में आ सकती है कोई हास्यास्पद घटना घटित हो और हंसी आ जाये या चिंता पैदा करने वाली घटना घटित हो और मन चिता से भर जाये, यह बात समझ में आ सकती है। किन्तु अकारण ही मन में हर्ष या विषाद पैदा हो, यह आश्चर्य में डाल देती है। जब हर्ष, विषाद, चिंता या शोक का कोई प्रत्यक्ष हेतु नहीं दीखता तब अचंभा होता है । कर्मशास्त्र ने इन अहेतुक आवेगों पर भी विचार किया और समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा कि निमित्तों के मिलने पर या परिस्थितियों के होने पर हर्ष, भय, शोक आदि होते हैं, किन्तु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जब भय - वेदनीय कर्म का प्रबल उदय होता है और वे कर्म - परमाणु इतनी प्रबलता से उदय में आते हैं, शोक या चिंता पैदा हो जाती है । जब शोकवेदनीय कर्म के परमाणु तीव्रता से उदय में आते हैं, तब बिना कारण ही मन में शोक छा जाता है । क्रोध - वेदनीय के प्रबल उदय से अकारण ही व्यक्ति क्रोधित हो जाता है । इस प्रकार के क्रोध को 'अप्रतिष्ठित क्रोध' कहा गया है । अप्रतिष्ठित क्रोध का अर्थ है - अकारण उत्पन्न होने वाला क्रोध । उसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं
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समस्या का मूल बीज : १४७
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