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कारण नहीं है, निमित्त नहीं है । उसका हेतु केवल कर्म के उदय की प्रबलता मात्र है । क्रोध - वेदनीय के परमाणु एक साथ इतनी प्रबलता से उदय में आ गये कि व्यक्ति बैठे ही बैठे गुस्से में आ गया | दैनंदिन के जीवन में हम ऐसी अवस्थाओं का अनुभव करते हैं ।
सब कुछ सकारण ही नहीं होता, अकारण भी बहुत कुछ होता है । अनेकान्त की स्वीकृति के अनुसार प्रत्येक कार्य के पीछे बाह्य कारण की अनिवार्यता नहीं है । कहीं-कहीं कारण स्वगत भी होता है, अलग कारण नहीं भी होता । अर्थात् वहां कार्य और कारण दो नहीं होते । अचानक उभरने वाले क्रोध में कोई बाहरी कारण नहीं होता, उसका कारण स्वयं में समाहित है । क्रोध- वेदनीय का उदय ही क्रोध का कारण है, अन्य कोई कारण नहीं है, कोई परिस्थिति नहीं है, कोई निमित्त नहीं है । ऐसा भी घटित होता है। कर्मशास्त्रीय व्याख्या के सन्दर्भ में हम परिस्थितिवाद को सार्वभौम सिद्धान्त के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। यह निमित्त का अस्वीकार नहीं है, परिस्थिति का अस्वीकार नहीं है। जैसी परिस्थिति होती है, व्यक्ति वैसा ही बन जाता है। इस बात में सचाई है, किन्तु पूरी सचाई नहीं है। जब हम सापेक्षवाद के आधार पर चिंतन करते हैं तो पूरी सचाई की बात किसी एक बात में हो ही नहीं सकती । वह सब अपूर्ण सत्य है । परिस्थितिवाद मिथ्या नहीं है । कर्मवाद में परिस्थिति का भी स्थान है, निमित्त का भी स्थान है । किन्तु परिस्थिति ही सब कुछ है या परिस्थिति ही व्यक्ति को निर्मित करती है या हमारा प्रत्येक आचरण या व्यवहार परिस्थिति से ही प्रभावित होकर घटित होता है - ऐसा मानना भ्रामक होगा। यदि परिस्थितिवाद की एकान्ततः स्वीकृति होती है तो उसके चक्र को कभी तोड़ा नहीं जा सकता, वह कभी टूट नहीं सकता। वह आगे से आगे घूमता रहता है। एक प्रश्न उपस्थिति होता है कि यदि इस परिस्थिति के चक्र को नहीं तोड़ा जा सकता तो फिर इस कर्म चक्र को कैसे तोड़ा जा सकता है ? यह भी तो एक चक्र है । क्योंकि प्रत्येक घटना के पीछे यदि कर्म का हाथ है और हर घटना कर्म के द्वारा ही प्रभावित होती है या प्रभावित होकर ही घटित होती है तो फिर इस कर्म चक्र को कैसे तोड़ा जा सकता है ।
कर्म की स्वीकृति भी एकान्तिक नहीं है । सब कुछ कर्म से ही घटित होता है, या यह स्वीकृति उचित नहीं है। सब कुछ कर्म से नहीं होता । कुछ ऐसी भी स्थितियां हैं, जो कर्म से प्रभावित नहीं भी होतीं । व्यक्ति का पूरा व्यक्तित्व कर्म से प्रभावित नहीं होता। ऐसी अनेक घटनाएं घटित होती हैं, जो कर्म से प्रभावित नहीं होतीं ।
एक व्यक्ति अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि है । उसका मिथ्यादर्शन अनादि है । वह प्रत्येक तत्त्व को मिथ्यादृष्टि से देखता है । सत्य के प्रति उसकी दृष्टि सही नहीं है । जब अनादिकाल से ऐसा हो रहा है तो वह मिथ्यात्व के चक्र को कैसे
१४८ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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