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को समाप्त कर देते हैं । उनमें अन्तर्द्वन्द्व होता है । वे उसको समाहित नहीं कर पाते । जो मानसिक समस्याएं एक सामान्य मनुष्य में होती हैं, वे सारी की सारी एक बड़े-से-बड़े बौद्धिक में हो सकती हैं । वे समस्याएं उसको इसलिए प्रताड़ित करती हैं, इसलिए आत्महत्या करने को बाध्य करती हैं कि उनमें बौद्धिक चेतना का तो पूर्णरूपेण विकास होता है, किंतु आध्यात्मिक चेतना सुषुप्त है, विकसित नहीं है, जागृत नहीं है । जब तक आध्यात्मिक चेतना का जागरण नहीं हो जाता, तब तक समस्याओं के व्यूह को नहीं तोड़ा जा सकता। उनके प्रवाह को नहीं रोका
जा सकता ।
afa और आध्यात्मिक, इन दोनों के विकास का हमारे जीवन में एक पूरा वृत्त बनता है । दोनों का समन्वय होना चाहिए। इन दोनों की समन्विति ही जीवन का सर्वोच्च विकास है । आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए मोह को समझना ज़रूरी है ।
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मोह का मूल है - राग और द्वेष । राग और द्वेष के द्वारा एक चक्र घूम रहा है | वह चक्र है आवेग और उप-आवेग का । राग और द्वेष है, इसीलिए क्रोध, मान, माया और लोभ - ये चार मूल आवेग उत्पन्न होते हैं । राग और द्वेष है, इसीलिए हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा (घृणा), काम-वासना - ये सारे उप-आवेग उत्पन्न होते हैं । इन सबके मूल में राग और द्वेष है। आवेगों की पृष्ठभूमि में ये दो अनुभूतियां काम करती हैं। जब तक ये अनुभूतियां हैं, तब तक आवेग और उप-आवेग की उत्पत्ति को नहीं रोका जा सकता। यह चक्र घूमता रहता है । कभी कोई आवेग उत्पन्न हो जाता हैं तो कभी कोई आवेग । यह सच है कि परिस्थितियां भी इनकी उत्पत्ति में निमित्त बनती हैं, वातावरण भी निमित्त बनता है | आवेगों की तरतमता समूचे आध्यात्मिक चेतना के विकास का बोध-चक्र है । कषाय-चतुष्टयी — क्रोध, मान, माया और लोभ के तारतम्य का पहला प्रकार है - अनन्तानुबंधी । अनन्तानुबंधी अनन्त अनुबंध करता है, इतनी संतति पैदा करता है कि जिसका अंत नहीं होता। संतति के बाद संतति । यह क्रम टूटता ही नहीं या मुश्किल से टूटता है । जिस आवेग में संतति की निरंतरता होती है या जिसमें संतति को पैदा करने की अटूट क्षमता होती है, वह अनंतानुबंधी होता है | कभी ऐसा होता है कि एक घटना घटती है । उसका असर होता है और बात समाप्त हो जाती है । कभी ऐसा भी होता है कि घटना घटित हुई, मन में विचार आया और उस विचार का सिलसिला इतना लम्बा हो गया कि उस मूल विचार से अनेक-अनेक छोटे-बड़े विचार उत्पन्न होते गये। एक के बाद एक विचार आते रहे। उनकी श्रृंखला नहीं टूटी। वह पहला विचार इतनी बड़ी संतति पैदा करता जाता है कि वह कभी समाप्त ही नहीं होता । यह अनन्तानुबंधी है । बहुत सारे कीटाणु ऐसे होते हैं, जिनकी संतति इतनी बढ़ जाती है कि जाल
आवेग : उप- आवेग : १५७
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