________________
कल को खोल दो वह पंगु की तरह बैठ जायेगा । कितनी उल्टी बात है ? एक सांकल वह है जिससे बंधा आदमी चल नहीं सकता, सांकल से मुक्त होते ही वह दौड़ने लग जाता है । एक सांकल वह है जिससे बंधा आदमी दौड़ने लगता है और मुक्त होने पर एक पैर भी नहीं चल पाता। कितनी अद्भुत बात है ।
चचलता पैदा करने वाला, सक्रियता पैदा करने वाला, भटकाने वाला जो तत्त्व है, वह है अविरति । यह एक ऐसी प्यास है जिसे हम अभी तक बुझा नहीं पाये । इतना भोग कर भी बुझा नहीं पाये । चंचलता का यही बड़ा स्रोत है । एक प्रश्न आता है कि जब हम इतना जान गये कि चंचलता का स्रोत है आकांक्षा, इच्छा, अतृप्ति, फिर भी उसे बुझा नहीं पाते। यह क्यों ? आदमी जान ले, फिर क्यों नहीं बुझा पाये ? इसका भी एक कारण है । यह भ्रम है कि आदमी ने जान लिया । वह अभी तक जान नहीं पाया है। इसका कारण है— मिथ्यादृष्टिकोण | हमारा दृष्टिकोण ही कुछ ऐसा बना हुआ है कि जिससे प्यास बुझती है उससे दूर भागते हैं और जिससे प्यास भभकती है उसे इसलिए पी रहे हैं कि प्यास बुझ जाये | आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है
मूढात्मा यत्र विश्वस्तः, ततो नान्यद् भयास्पदम् । यतो भीतस्ततो नान्यद्, अभयस्थानमात्मनः ॥
-
- मूढ़ आत्मा जिसमें विश्वास करता है उससे अधिक कोई भयानक वस्तु संसार में नहीं है । मूढ़ आत्मा जिससे डरता है, जिससे दूर भागता है, उससे बढ़कर शरण देने वाली वस्तु संसार में नहीं है ।'
खतरनाक वस्तु में विश्वास करना और ख़तरा मिटाने वाली वस्तु से दूर भागना, यह कब होता है ? यह तब होता है जब आत्मा मूढ़ हो, दृष्टिकोण मिथ्या हो, मोह प्रबल हो । जब राग-द्वेष की प्रबलता होती है, कषाय की प्रबलता होती है, तब ऐसा होता है। जब तक मिथ्यादृष्टि दूर नहीं होगी, तब तक हम यह समझ नहीं पायेंगे |
कर्म-बन्ध की प्रक्रिया में महावीर से पूछा गया - भंते ! कर्म का बंध कैसे होता है ? उसकी प्रक्रिया क्या है ?
भगवान् ने कहा- जब ज्ञानावरण कर्म विशिष्ट उदयावस्था में होता है, तब दर्शनावरण कर्म का उदय होता है । जब जानने पर आवरण आता है, तब देखने पर भी आवरण आ जाता है । जब दर्शन का आवरण होता है, तब दर्शन मोह कर्म का उदय होता है । जब दर्शन मोह का उदय होता है, तब मिथ्यात्व आता है । उसके अस्तित्व में नित्य को अनित्य, सुख को दुःख, अनित्य को को सुख मानने की बात घटित होती है । तब व्यक्ति जो दुःख के सुख के साधन तथा जो सुख के साधन हैं, उन्हें दुःख के साधन मानने लग जाता है ।
नित्य और दुःख
साधन हैं, उन्हें
१४० : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org