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अप्रमत्त रहें? हम उस क्षण के प्रति जागरूक रहें, जिस क्षण में राग-द्वेष उत्पन्न होता है । राग-द्वेष का क्षण हिंसा का क्षण है । राग-द्वेष का क्षण ही असत्य का क्षण है। राग-द्वेष का क्षण ही चौर्य का क्षण है। राग-द्वेष का क्षण ही अब्रह्मचर्य का क्षण है। राग-द्वेष का क्षण ही परिग्रह का क्षण है । जितने भी दोष हैं, उन सबका क्षण है राग-द्वेष का क्षण । राग-द्वेष का क्षण ही समूची कर्म-वर्गणाओं के आकर्षण का क्षण है । इसलिए साधना के क्षेत्र में जागरूकता का अर्थ है - उस राग-द्वेष के क्षण के प्रति जागरूक रहना जो कर्मों को आकर्षित करता है और अनेक आचरणों के माध्यम से करता है । उस क्षण के प्रति हम जागरूक रहें, तटस्थ रहें, सामायिक करें, समभाव में रहें ।
जागरूकता का अर्थ इतना ही नहीं है कि हम नींद न लें। नींद नहीं लेने का ही नाम जागरूकता हो तो एक मज़दूर जो आठ-दस घंटे कठोर श्रम करता है, वह पूर्ण जागरूक है, जागृत है । वह नींद कहां लेता है ? बेचारे को नींद लेने का कोई क्षण ही प्राप्त नहीं होता । वह पूरा जागृत है, और पूर्ण जागरूकता से अपने काम में लगा हुआ है । किन्तु साधना की दृष्टि से जागरूक रहने का अर्थ है - किसी भी क्षण में राग-द्वेष को उत्पन्न न होने देना ।
राग और द्वेष का अक्षण ही तटस्थता का क्षण है । राग और द्वेष का अक्षण ही ध्यान का क्षण है । इसके अतिरिक्त कोई ध्यान नहीं है। हम प्राणायाम करें या प्रेक्षा करें, शरीर को देखें या पदार्थ को देखें, अनिमेष दृष्टि रखें या आंख मूंदकर साधना करें यह ध्यान नहीं है । यह तो मात्र ध्यान का आलंबन है । ध्यान वह है कि जिसमें राग और द्वेष का कोई क्षण ही न आये । राग और द्वेष के क्षण का न आना ही यथार्थ में ध्यान है । अन्यथा सारी क्रियाएं बाह्य क्रियाएं हैं, केवल शारीरिक क्रियाएं हैं । वे निष्प्राण क्रियाएं हैं। उनसे वह अर्थ सिद्ध नहीं होता जो ध्यान के द्वारा होता है । वे क्रियाएं अधिक-से-अधिक आगे बढ़ती हैं, तो प्रामाणिक क्रियाएं बन जाती हैं, जो प्राण को प्रभावित करने वाली या प्राणशक्ति के कुछ चमत्कार दिखाने वाली सिद्ध हो सकती हैं। जो चमत्कार प्रचलित हैं, वे सारे के सारे प्राणशक्ति के चमत्कार हैं, प्राणिक चमत्कार हैं । किन्तु जिन क्रियाओं के द्वारा मनुष्य के चरित्र में परिवर्तन होना चाहिए, आवेगों और संवेगों में परिवर्तन होना चाहिए, जिनके द्वारा क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, घृणा - इनमें परिवर्तन होना चाहिए। वह उस ध्यान के द्वारा नहीं हो सकता यदि हम राग-द्वेष के क्षण के प्रति जागरूक नहीं हैं। यदि हम भावकर्म के प्रति जागरूक नहीं हैं तो आने वाले उन पौद्गलिक कर्मों को हम रोक नहीं सकते और उनको
के बिना, वे आने वाले कर्म अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रह सकते, निमित्त बने बिना नहीं रह सकते । यदि वे निमित्त बनेंगे तो राग-द्वेष का चक्र चलना बंद नहीं होगा ।
११८ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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